अधूरे सपने
अधूरे सपने
आकांक्षा सारे काम खत्म करके अपने दोनों बेटों के कॉलेज से आने का इंतज़ार कर रही थी ताकि सब साथ बैठकर खाना खा सकें।
दोनों बेटे घर आये और आते ही अपने कमरे में चले गए।
आकांक्षा ने जब खाने के लिए पूछा तो उन दोनों ने एक साथ कहा "ओफ्फ हो माँ, हम खाकर आये हैं। हमें और भी काम है। आपकी तरह सारा दिन घर पर नहीं बैठे रहते हैं।"
आकांक्षा ने बेमन से अकेले ही खाना खाया।
रात में उसने अपने पति अविनाश से कहा "जब बच्चे छोटे थे तो उनके काम करते हुए, उनके पीछे भागते हुए वक्त का पता ही नहीं चलता था। अब तो समझ नहीं आता खाली वक्त का क्या करूँ?
तुम घर थोड़ा जल्दी आ जाया करो ना।"
अविनाश ने बेरुखी से जवाब दिया "देखो मेरे पास हजारों काम हैं। तुम्हारी तरह घर बैठ जाऊंगा तो तुम्हारे और तुम्हारे साहबजादों के खर्चों का क्या होगा?
तुम ये किट्टी-विट्टी जो होता है उन सब से जुड़ जाओ, फिर बर्बाद करने के लिए वक्त नहीं मिलेगा।"
आकांक्षा अविनाश की बात सुनकर उदास हो गयी।
अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए उसे सहसा याद आया कि उसका कितना मन था गिटार बजाना सीखने का और कत्थक देखकर वो कैसे मंत्रमुग्ध हो जाया करती थी।
लेकिन उसके घर में नृत्य-संगीत के लिए कोई जगह नहीं थी, जिसके कारण उसे अपनी ख्वाहिशों को छोड़ना पड़ा।
आकांक्षा ने तय कर लिया अब वो अपना वक्त अपने अधूरे सपनों को देगी, लेकिन सारी रात वो इस उधेड़बुन में रही कि अब इस उम्र में क्या ये सब ठीक होगा?
लेकिन सुबह होते-होते संशय के बादल छँट चुके थे और खुद पर उसका भरोसा मजबूत हो चला था।
अविनाश और बेटों के जाने के बाद आकांक्षा संगीत विद्यालय पहुँची। वहाँ युवा लड़के-लड़कियों को देखकर एक पल के लिए वो झिझकी, लेकिन फिर उसने खुद की हिम्मत बँधायी और अपना नामांकन करवा लिया।
अब सुबह वो गिटार सीखने जाती और शाम को कत्थक की कक्षा चलती। बाकी का वक्त रियाज में जाता।
संगीत विद्यालय के सारे युवा लड़के-लड़कियां अब आकांक्षा के मित्र बन चुके थे और उसकी बहुत इज्जत करते थे।
घर में जब सबको आकांक्षा के इस फैसले के बारे में पता चला तो सबने एक स्वर में कहा "वक्त ही गुजारना था तो किसी सामाजिक संस्था से जुड़ जाती। अब इस उम्र में हड्डियां तुड़वाने का शौक पाल लिया।"
आकांक्षा ने जवाब में बस इतना ही कहा "मैं मरने से पहले अपने सपनों को जीना चाहती हूँ।"
अविनाश बोला "चलो ठीक है जो मर्जी आये करो। अब कम से कम अकेले होने का रोना तो नहीं सुनना होगा घर में।"
दोनों बेटे भी इस बात से सहमत होकर अपने-अपने कमरों में चले गये।
लगभग एक वर्ष बीतने को आ रहा था। अपनी मेहनत और लगन से आकांक्षा धीरे-धीरे दोनों विद्याओं में दक्षता हासिल कर रही थी।
शहर में एक नृत्य समारोह का आयोजन होने वाला था जिसमें आकांक्षा का विद्यालय भी हिस्सा ले रहा था।
आकांक्षा को भी एक नृत्य प्रस्तुति के लिए चुना गया। उसने घबराकर मना कर दिया कि यहाँ तो सब अपने हैं, लेकिन वहाँ हज़ारों लोगों के सामने इस उम्र में वो मंच पर प्रस्तुति नहीं दे पाएगी।
विद्यालय के सभी साथियों ने मिलकर उसका हौसला बढ़ाया और कहा "हम सब आपके साथ होंगे। अगर आपसे नहीं हो सका तो हम संभाल लेंगे।"
अंततः आकांक्षा को हामी भरनी ही पड़ी। सब लोग समारोह की तैयारियों में लग गयें।
आकांक्षा ने अपने परिवार को भी समारोह में आने का निमंत्रण दिया।
बेमन से अविनाश और उसके बेटे समारोह में पहुँचे।
आकांक्षा की आशा के विपरीत उसकी प्रस्तुति बेहद सुन्दर रही और सबने उसकी बहुत तारीफ की।
विशेष पुरस्कार के लिए आकांक्षा के नाम की घोषणा हुई।
पुरस्कार लेने के बाद आकांक्षा से दो शब्द बोलने के लिए कहा गया।
आकांक्षा पहले तो घबरायी लेकिन जल्दी ही उसके स्वर में आत्मविश्वास लौट आया।
उसने कहा "मैं आज यहाँ आप सबके बीच अपने परिवार की वजह से हूँ। उन्होंने मुझे एहसास दिलाया कि मुझे घर पर उनका इंतज़ार करते हुए वक्त बर्बाद करने की जगह कुछ सार्थक करना चाहिए, और इसलिए मैंने अपने अधूरे रह गए सपनों को पूरा करने की ठानी।
मेरी उम्र की सारी महिलाओं से आज मेरा यही आग्रह है कि परिवार की जिम्मेदारियों में घिरकर अपने जो सपने आपने अधूरे छोड़ दिए, अब उन्हें पूरा कीजिये, बजाय अकेलेपन में घुटकर मानसिक रोगी बनने के स्वयं को वक्त दीजिये।
हमें बस ये समझने की जरूरत है कि अगर हम खुद अपना हाथ थाम लें तो ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर कभी अकेले नहीं पड़ेंगे।"
वहाँ उपस्थित सभी लोग खड़े होकर आकांक्षा के सम्मान में तालियां बजा रहे थे।
अपने सपनों की बदौलत अपने परिवार की नज़रों में भी आज आकांक्षा अपना खोया हुआ सम्मान वापस पा चुकी थी।
