आस्था के पुष्प एवं जल प्रदूषण
आस्था के पुष्प एवं जल प्रदूषण


हमारा देश भारत अध्यात्म प्रधान और धर्म प्रधान राष्ट्र है। उपवास, पूजा- पाठ, पर्व- त्योहार ,धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकांड हमारी पहचान रहे हैं। मेरे विचार में सात्विक विचार हों, मानव मात्र के प्रति कल्याण की भावना रखना, पर्यावरण के प्रति जागरूकऔर संवेदनशील होना, यह सच्चा धर्म होना चाहिए।
आइये, आस्था और धर्म में भेद क्या है, इसे पहले जान लें।आस्था व्यक्ति को समाज से जोड़ती है,अपने परिवेश से जोड़ती है,अपनी पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं से जोड़ती है। आस्था विश्वास का विषय है, इसमें तर्क का कोई स्थान नहीं है। वर्षों से चली आ रही परंपराओं को आंख मूंदकर मानना यह आस्था कहलाती है। जिसे हम धर्म की संज्ञा दे देते हैं। धर्म तर्क का विषय है।धर्म और आस्था,इनमें एक की अधिकता दूसरे को हानि पहुंचाती है,क्योंकि साक्षर तथा शिक्षित लोग भी आस्था के नाम पर ऐसे- ऐसे धार्मिक कृत्य करते हैं, जो तर्कहीन होते हैं, खुद अपने लिए और समाज के लिए हानिकारक एवं कष्टदाई होते हैं अंधश्रद्धा और आस्था के उदाहरणों में गत कुछ वर्षों से आयोजित होने वाले भंडारे जिनमें धर्म भावना ढूंढना तो कठिन है ,अहंकार की गंध ज्यादा आती है। दूसरा है,कीर्तन मंडलियों का आयोजन करना।यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि धर्मभिरू जनता जितना ठगी की शिकार इन तथाकथित धर्म का पाठ पढ़ाने वाले गुरुओं से हुई है, शायद ही किसी और से हुई है।फिर उदाहरण लें, रात्रि जागरण कार्यक्रमों का जिनमें व्यवसायीकरण की अंदर तक गहरी पैठ बनी हुई है।इन कार्यक्रमों के आयोजन द्वारा हम सामाजिक पर्यावरण को तो क्षति पहुंचा ही रहे हैं इसके अलावा,इनसे उत्पन्न शोर से उपजते ध्वनि प्रदूषण ओर वायु प्रदूषण के भी शिकार हो रहे हैं।
हमारा हर कार्य, हमारे हर आचरण में मानवता लक्ष्य हो,सबका कल्याण का ध्येय हो, सबका अभ्युदय हो, पर्यावरणीय परिवेश का संरक्षण हो, वही सच्चा धर्म है।
पिछले कुछ वर्षों में पर्यटन को बढ़ावा मिलने के कारण पर्यटकों और दर्शनार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई है।इनकी आमद न केवल पर्यावरण प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है इनके द्वारा अर्पित श्रद्धा सुमन भी पर्यावरण के लिए विकट समस्या बन गए हैं।एक अनुमान के अनुसार 800 मिलियन टन गुलाब और गेंदे के फूल ,सिंदूर ,प्लास्टिक की अगरबत्ती और प्लास्टिक की चूड़ियां प्रतिदिन मंदिरों मस्जिदों और गुरुद्वारों में चढ़ाए जाते है।यह सब कचरे के ढेर में बदलता है और पर्यावरण के लिए समस्या बन जाता है।मंदिरों के चढ़ावे को पवित्र माना जाता है।इसे कूड़े में डालना अनुचित माना जाता है। इसलिए हर दिन इन वस्तुओं को घुलनशील और अघुलनशील को अलग किए बगैर नदियों, तालाबों और झीलों में डाल देते हैं। नदियों की सफाई परियोजनाओं में भी इसे अनदेखा कर दिया जाता है ।फूलों द्वारा जनित कचरा नदियों को प्रदूषित करने में 16% जिम्मेदार है। फूलों की सड़न से पानी की गुणवत्ता प्रभावित होती है क्योंकि फूलों में कीटनाशक और अन्य रसायनों का छिड़काव किया जाता है, इस वजह से वह जल जंतुओं को प्रभावित करते हैं।
काशी विश्वनाथ में श्रद्धालुओं का फूलों का चढ़ावा लगभग 2 टन कचरा प्रतिदिन बढ़ाता है।वेस्ट प्रोसेसिंग यूनिट लगी होने से प्रतिदिन 1 टन ऑर्गेनिक खाद तैयार की जाती है और प्रतिवर्ष लगभग 700 टन कचरा गंगा में गिराए जाने से भी बचाया जाता है।
हर मंदिर में वेस्ट प्रोसेसिंग यूनिट लगाना संभव नहीं है, इसलिए कुछ स्टार्टअप के अंतर्गत कार्य करने वाले लोग मंदिरों से इन फूलों को बड़े-बड़े कंटेनर में इकट्ठा कर फैक्ट्री ले जाते हैं। उनके प्रकार के हिसाब से उन्हें अलग करते हैं। उनमें धागे और प्लास्टिक को अलग करते हैं।इनसे केंचुआ खाद बनाते हैं।यह 100% रसायन मुक्त होती है।जिन फूलों से अगरबत्ती बन सकती है उन फूलों को अलग किया जाता है। फूलों की रीसाइक्लिंग प्रोग्राम से अनुमानतः 44 किलोग्राम विषैले रसायन नदियों में प्रतिदिन जाने से बच जाते हैं।ग्रीनवेव में 1 किलो फूलों के वेस्ट से 800 से 1000 अगरबत्तीयां बन जाती हैं, और नदी की इकोलॉजी पर किसी तरह का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता।
अजमेर शरीफ में 3 से 5 टन गुलाब प्रतिदिन चढ़ाए जाते हैं। हिंदुस्तान जिंक माइनिंग कंपनी ने यहां रीसाइक्लिंग मशीनें लगाई हैं, जो लगभग 100 किलोग्राम फूलों से 25 किलोग्राम कंपोस्ट तैयार करती हैं।
कुछ बड़े देवालयों में ग्रीन वेस्ट रिप्रोसेसर मशीन लगाई गई हैं।यह लगभग 100 स्क्वायर फीट की जगह में लगाई जा सकती हैं।यह दिन भर के कचरे को रिपरोसेसिंग कर सकती है।यह बिजली चालित होने पर भी प्रदूषण नहीं फैलातीं।इन मशीनों के लगाने से ट्रांसपोर्ट का ख़र्च बचता है जो गार्बेज डिस्पोजल गाड़ियों के परिवहन पर आता है।इससे फैलते प्रदूषण को भी रोका जा सकता है। इस मशीन द्वारा कचरे में जो पानी होता है, उसका वाष्पीकरण कर दिया जाता है ।सूखे कचरे को रीसायकल करके हवन सामग्री और बायो स्टोव के लिए लकड़ी तैयार की जाती है। दिल्ली से बाहर झंडेवालान मंदिर,में प्रतिदिन 5000 से 10000 श्रद्धालु आते हैं, जो लगभग पांच दिन लगभग 200 किलो प्रतिदिन ,मंगलवार और रविवार को 500 किलो और नवरात्रि में 1 टन से ऊपर फूल चढ़ाते हैं। इन फूलों के साथ बुरादा और बैक्टीरिया मिलाकर मशीन में डाल दिया जाता है जिससे खाद बनाई जाती है। लगभग हर रोज 35 किलोग्राम कंपोस्ट तैयार होता है। इस कंपोस्ट की गंध नहीं होती और इसकी अत्यधिक मांग हरियाणा और मंडोली मंदिर के अलावा स्थानीय स्कूलों में भी है। सिद्धिविनायक गणपति मंदिर में गेंदे के पीले रंग का प्रयोग लड्डू में, तिलक और सिंदूर में किया जाता है। चंपक और गुलाब के फूलों का उपयोग परफ्यूम, साबुन, प्रसाधन, खाने के रंग ,बायोएथेनॉल, ऑर्गेनिक एसिड ,सूती,उन और सिल्क के वस्त्रों को रंगने के काम आता है।हम अधिक कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम फूलों को सुखा कर जमीन में गाड़ दें, पुनः पुष्प उग आयेंगे,नहीं तो धरा की उर्वरक शक्ति बढ़ाएंगे।
सनातन धर्म में भगवान को समर्पित वस्तुओं का जल दाह अथवा अग्निदाह किया जा सकता है। किंतु आज की पर्यावरणीय परिस्थितियों को देखते हुए दोनों ही उचित नहीं है।ऐसे में नदियों की अस्मिता को बढ़ते प्रदूषण से बचाने के लिए इन प्रयासों के साथ जनजागरण फैलाने की आवश्यकता है। गर्मियों में जल के लिए मार -पीट होती है,इसे न भूलें। हम यदि पर्यावरण की इज्ज़त करते हैं,तो उसके संरक्षण के लिए जागरूक रहें।प्रकृति को हानि पहुंचाने से बचें।आनेवाले कल को बेहतर बनाने का प्रयास करें।नेताओं के सम्मान के लिए पुष्प गुच्छ न देकर पोधा दें।राज्य सरकारें मुख्य भूमिका निभाएं।छोटे देवालयों की भी प्रदूषण रोकथाम में सहभागिता सुनिश्चित कराएं।सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड स्पष्ट निर्देश जारी करें।आवश्यकता हो तो आर्थिक दंड के रूप में उस मंदिर से निकलने वाले कचरे के प्रबंधन का खर्च उठाने जैसा दंड निर्धारित करें।जहां स्वच्छता होती है वहां ईश्वर का वास होता है,नदियों में हम मां देखते हैं,उनकी पूजा करते हैं, ईश्वर रूपी जलनीधियों को कैसे अस्वच्छ रख सकते हैं?