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Sanjiv Sarkar

Abstract

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Sanjiv Sarkar

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आखरी दस्तक

आखरी दस्तक

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बड़े लम्बे समय से बीमार चल रहे रामकिशन जी जब इस बार अस्पताल पहुंचे तो उन्हें ये आभाष हो रहा था, शायद मै दुबारा घर न लौटूं , डाक्टर शाहब का विवस चेहरा भी कुछ यही कह रहा था। 

अपने जीवन को याद कर रामकिशन जी मन ही मन मुस्कुरा रहे थे , कई बार उनकी आँखें नम हुई। करते भी तो क्या, सच तो यही है। सवाल कई थे उनके मन में जिनका जवाब सायद उन्हें अब न मिल पाए। पूछते भी तो किससे, बुढ़ापा तो खुदके साथ ही बिताया था उन्होंने, बड़ा परिवार तो बस नाम का था। सब सामने खड़े थे, पर आशा भरी नज़रों से वो डॉक्टर शाहब के तरफ एकटुक देख रहे थे, सायद उनके इस सवाल का जवाब डॉक्टर शाहब ही दे पाते !  

 " क्या मेरे मरने के बाद मुझे कुछ याद रहेगा, मुझे मरने का भय नहीं मै तो बस अपने यादों को समेटकर जाना चाहता हूँ ? "  

इतना सोच ही रहे थे की उन्होंने कुछ लोगों को रोते हुए बहार की ओर जाते देखा। दुःख में सबके साथ खड़े रहने वाले रामकिशन जी कहाँ खुद को रोक पाते।

खुद को सम्हालकर वै भी उनके पीछे चल पड़े, "गाओं के लोगो की यही बात तो निराली है, दुःख किसी का भी हो दर्द सब महसूस करते हैं "। कुछ दूर चलने के बाद जब समसान पहुँचे तो उन्हें एक जलता चिता दिखाई पड़ा, ये देख वै भी दुखी हो गए। रात हो चुकी थी, सब अपने घर लौट रहे थे। रामकिशन जी भी धीरे-धीरे उनके पीछे बढे। गाँव पहुंचते ही मानो जैसे उन्हे सब अपना सा लगने लगा हो। घर के पास पहुचें, तो दरवाज़ा बंद पड़ा था। उन्होंने दस्तक दी, किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला, परेशान होकर उन्होंने कई बार दस्तक दी, ज़ोर-जोर से अपने घरवालों को पुकारा, कई बार पुकारा ! रामकिशन जी बिलख बिलखकर रो पड़े, सुनता भी आखिर कौन ? ना तब ना अब !!

अपने बूढ़े चेहरे के लकीरों के बीच फँसे अपने आसुंओं को समेटकर वो चल दिए, पता नहीं उन्हें सब याद है या नहीं।   


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