आकाश को सात सीढ़ियाँ
आकाश को सात सीढ़ियाँ
सवेरे-सवेरे एक दिन अखबार पढ़ते समय मैंने एक विज्ञापन देखा। लिखा था-
'जो रॉकेट पायलट बनना चाहते हैं, वे
निम्नलिखित पते पर आवेदन करें:'
सामति चन्द्रशेखर
महाकाल गवेषणा केंद्र
बंबई-1
मैं उस समय कॉलेज में पढ़ता था। करीब दो साल हुए फ़्लाइंग क्लब में प्रवेश कर विमान चालक बन चुका था। मन तैयार नहीं था पर जी चाहता विमान को महाकाल की ओर उड़ा ले जाऊं। पर क्या विमान इतना ऊँचा उड़ सकता है? उसके लिए चाहिए रॉकेट। मैंने फ़ौरन आवेदन कर दिया।
मैं 'महाकाश गवेषणा केंद्र' से बुलावा पाकर बंबई (मुंबई) पहुँचा। देखा भारत की कई जगहों से अनेक प्रार्थी वहाँ एकत्रित हैं। उनमें से कई पहलवान भी हैं। मुझे देखकर सब हँस पड़े। मैं अधिक लंबा नहीं हूँ तो क्या हुआ? मेरा मन तो खूब लंबा है। मैं भला क्यों हार मानूँ? परेशान न होकर मैं परीक्षण की प्रतीक्षा करने लगा।
टन! घंटा बजता है। न जाने कहाँ से निकलकर अचानक एक डॉक्टर हमारे सामने खड़े हो जाते हैं। हमें परीक्षण प्रकोष्ठ में ले जाकर वे हाथ से न जाने क्या दिखाते हैं? हम लोगों ने देखा सात बड़े-बड़े संदूक रखे हुए हैं। उसके बाद डॉक्टर ने कहा-
"सुनिए, ये हैं स्वर्ग को जाने की सात सीढ़ियाँ। इन्हें पार करने वाला स्वर्ग जा सकता है, ऐसा हम मान लेंगे। उसके बाद उसे रॉकेट पायलट का प्रशिक्षण दिया जाएगा"
इतना कहकर उन्होंने मेरी ओर अँगुली उठाई। मैं चल पड़ा पहले संदूक की ओर। इस संदूक का नाम है-'घुप अँधेरी पेटी'। रॉकेट में जाने वाले को अँधेरे और एकांत में बहुत दिनों तक रहना पड़ता है। मैं अँधेरे में रह सकूँगा या नहीं, इसकी परीक्षा यहाँ होगी।
मुझे संदूक के अंदर धकेलकर डॉक्टर ने किवाड़ बंद कर दिया। धड़ से दरवाजा बंद हो गया। देखते-देखते धूप से संदूक की बत्ती बुझ गई। उसके बाद घिर आया मिचमिचाता अंधकार। चारों ओर सूनापन। रंचमात्र भी आवाज नहीं। जैसे मैं महाकाल में हूँ। महाकाल ऐसा ही अँधेरा और शून्य है।
मैं चुपचाप बैठा रहा। तनिक अँगड़ाई लेने की भी जगह नहीं थी। यह एक छोटा तंग संदूक है। ठीक रॉकेट पायलट की केबिन की तरह। उस पर अंधेरा। चारों ओर लटक रही थीं-तारों की लड़ियाँ बाहर तारों के जरिए वे लोग मेरे शरीर और मन की परीक्षा कर रहे थे।
सुबह हुई। मैंने खोलकर एक बोतल उठाई। न जाने क्या है इसमें? जैसे दिव्यचक्षु अक्षर पढ़ते हैं, वैसे ही टटोलकर मैंने बोतल को देखा। उभरे-उभरे दो अक्षर मेरे हाथ आए 'दूध', मैंने पढ़ लिया। फिर मैंने मुंह से लगाकर भूख मिटाई।
एकाएक दरवाजा खुला। बाहर की रोशनी मानो पहली बार आँखों में पड़ी हो। प्रकाश देखकर मैं खुशी से पुलकित हो उठा।
उसके बाद में दूसरे संदूक में गया। यह है 'शैतान-चकरी संदूक'। इसमें प्रवेश करते ही यह घूमने लगता है। ठीक वैसे ही जैसे रॉकेट पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। यदि एक व्यक्ति को एक लंबी रस्सी से बाँधकर बकरी के समान घुमाया जाए तो उसे जैसा लगेगा, ठीक वैसा ही इस संदूक में लगता है।
मैं संदूक में घुसा। डॉक्टर ने मुझसे पैर सिकोड़कर आराम से सोने को कहा। दरवाजा बंद करने से पहले उन्होंने मुझे स्विच पकड़ाकर कहा-"इस स्विच को दबाते ही बक्से के अंदर की बत्ती बुझ जाएगी। अन्यथा वह सदा जलती रहेगी। जब तक तुम्हें होश रहे स्वच्छ दबाते रहना। बत्ती बुझते ही हम मान लेंगे कि अभी तुम्हारी और घूमने की इच्छा है। बत्ती के न बुझने पर हम सोचेंगे कि तुम डर गए हो। और तब हम चकरी बंद कर देंगे।" धीरे-धीरे मेरा शरीर न जाने कैसा झनझनाने लगा। फिर ऐसा लगा मानो शरीर की माँसपेशियाँ खींच ली गई हों। मैं जानता था चकरी में बड़ी तेजी से घूमने पर शरीर का भार बढ़ जाता है। खून का भार भी बढ़ता है।
बड़ी देर के बाद चकरी रुक गई। डॉक्टर दिखाई पड़े। मैंने पूछा -
"जी, क्या मैं रॉकेट पायलट बन सरकँगा?" डाक्टर ने अन्य पाँच संदूकों की ओर इशारा किया और कहा, "अभी भी पाँच सीढ़ियाँ बची हैं।"
उसके बाद मैं जिस संदूक में गया उसका नाम है-'लाख की कोठरी।' नाम सुनकर मैं चौंक उठा। पांडवों को ऐसे ही एक घर में रखकर कौरवों ने आग लगा दी थी।
हुआ भी वही। मेरे घुसते ही कमरे को गरम कर दिया गया। रॉकेट जब महाकाल से लौटकर पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करता है, उस समय वह इसी तरह गरम हो जाता है। देखते-देखते मेरे चारों तरफ़ धुआँ उठने लगा। मैं पसीने से लथपथ होने पर भी बैठा रहा।
आधे घंटे के बाद में बाहर निकला। डॉक्टर ने कहा," अच्छा! लगता है तुम आग में भी नहीं जलोगे। बाद में सुना मेरी कोठरी का तापमान था 103 डिग्री फ़ारेनहाइट।
वहाँ से मैं ध्वन्यागार में गया। यहाँ मेरे कानों के पास कई तरह की तीखी आवाजें की गईं। कानों में रुई का फाया लगाकर मैं बैठा रहा। नहीं तो कानों के पर्दे फट गए होते। धीरे-धीरे शोर बढ़ने लगा।
यदि रॉकेट पायलट का सिर ध्वनि न झेल सके तो बड़ी मुश्किल होगी। रॉकेट जब ज़मीन से उठता है, आकाश को चीरने वाली भयंकर गर्जना करता है। इस ध्वनि से व्यक्ति पागल भी हो सकता है। जो भी हो मैं नाद की कोठरी से आराम से निकल आया।
इतने कष्टों के बाद भी वे मेरी परीक्षा लेते रहे। पाँचवें संदूक का नाम है-'नाचने वाला संदूक'। रॉकेट में बैठकर शून्य को उठते वक्त व्यक्ति को ऐसे अनेक धक्के खाने होते हैं। फिर व्यक्ति को उस स्थिति में दिशा ज्ञान सही रहता है या नहीं यह जानना भी ज़रूरी है। इसलिए उन लोगों ने मुझे नाचने वाले संदूक में भर दिया। संदूक नाचने-कूदने लगा, घूमने लगा। मैं संदूक के संग नाचता रहा। पर हमेशा मेरा सिर ऊपर आकाश की ओर रहा। मतलब आकाश की ओर मुंह किए मैं रॉकेट चला रहा था।
नाचने वाले बक्से से निकलते ही उन लोगों ने मुझे छठवें संदूक में भर दिया। इस संदूक का नाम है-'भार-शून्य संदूक'। इसमें कुछ ऐसी खूबी है कि संदूक में घुसते ही देह का वज़न गायब हो जाता है। शरीर रहता है पर वज़न नहीं। बड़ी तकलीफदेह स्थिति है। पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचे जाने पर एक ऐसा क्षेत्र आता है जहाँ रॉकेट पायलट की देह से भार चला जाता है। अत: ज़िंदा रहकर भी वह समझ नहीं पाता है कि जीवित है या मृत।
सातवीं सीढ़ी है-'महाशून्य संदूक'। सबसे ज्यादा कष्ट यहाँ होता है। पर वास्तविक रॉकेट पर चढ़ने का मज़ा तो यहीं मिलता है। रॉकेट पायलट की पोशाक और मुखौटा यहाँ मिलते हैं। पारदर्शी प्लास्टिक का मुखौटा लगाकर यहाँ बैठ जाने पर लगता है-वाह! ठीक रॉकेट ही है।
पहले उन्होंने मुझे पर्याप्त ऑक्सीजन दी। उसके बाद मैं रॉकेट पायलट की पोशाक पहन महाशून्य संदूक के अंदर गया। मैं कंधे पर लटकती हुई ऑक्सीजन की थैली से साँस ले रहा था।
इसी बीच मेरी सीट के पास एक गिलास में पानी रख दिया गया, निश्चय ही पीने के लिए नहीं। फिर किस लिए?
मैं प्रतीक्षा करने लगा। अचानक घू.. करते हुए एक यंत्र चलने लगा। मैं फ़ौरन समझ गया कि मेरे शरीर को कोई चूस रहा है। मेरे आस-पास हवा सोखी जा रही थी। हवा का स्थान भरने के लिए मेरी पोशाक फूल-फूल उठती थी।
मेरी आँखों के सामने मीटर का एक काँटा धीरे-धीरे घूम रहा था। वह है ऊँचाई नापने का यंत्र। वह दिखा रहा था।
दस हज़ार फीट-पंद्रह हज़ार-बीस-तीस चालीस-पचास और साठ हज़ार फीट।
ओह! उसके बाद सत्तर हज़ार फीट। मैं वास्तव में ऊपर को नहीं उठ रहा था।
सत्तर हज़ार फीट ऊपर पहुँचने पर जो हो सकता है; वह सब हो रहा था उस संदूक के भीतर। मेरी पोशाक न होती तो मेरी चमड़ी मेंढक की तरह फूल कर फट गई होती।
परखने के लिए मैंने हाथ से ग्लव निकाल दिया। आह! मेरी पलकें मुँदने लगीं। मेरी हथेली अचानक बैलून की तरह फूल उठी।
मीटर का काँटा उठा-पचहत्तर हजार फीट। तभी मैंने नीचे देखा।
गिलास का पानी खदकने लगा था। तापमान के कारण नहीं। लघुचाप के कारण। पचहत्तर पर पानी पानी नहीं रहता। वह भाप बन जाता है।
डॉक्टर ने कहा, "यदि पोशाक न होती तो खून इसी तरह भाप बनकर उड़ जाता।'
मेरी पोशाक में एक माइक्रोफ़ोन भी लगा था। उसे मुंह के पास लेकर मैं अचानक बोल उठा -
"हेलो! मैं युधिष्ठिर बन गया हूँ। नर्क दर्शन पूरा हो गया। अब मैं स्वर्ग को जाऊँगा।"
तुम सुनकर खुश होगे कि मुझे रॉकेट पायलट चुन लिया गया है। पहलवान सब कहाँ गए, मैं नहीं जानता। पर तुम्हें जानकर और भी अचंभा होगा कि इस सूचना से मेरे गुरुजी को ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ। उन्होंने हँसते हुए केवल इतना ही कहा -
"यह कोई नई बात नहीं है। देह और मन को साध लेने पर व्यक्ति और भी दुःसाध्य काम कर सकता है।"
