Saroj Verma

Tragedy

4.5  

Saroj Verma

Tragedy

आज़ादी

आज़ादी

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अपनी साड़ी के पल्लू से वो अपने आंसुओं को बस पोछते हुए चली जा रही थी,उसे आज ये किसी भी हाल में जानना था कि आखिर वो है कौन?

क्या वो एक पहिया है,जो केवल दूसरों के लिए ही घूमती रही,या के कोई पतंग जो जो दूसरों की बताई हुई दिशा में उड़ती रही या फिर कोई बहती हुई नदी,जो औरों की प्यास तो बुझाती रही लेकिन स्वयं सूख गई,आखिर उसका कोई अस्तित्व है भी या नहीं,आज उसे मालूम करना था।।

आज उसने ऐसा कोई ग़लत काम तो नहीं कर दिया था जो उसे घर से ही निकाल दिया गया,पन्द्रह साल उसने कोल्हू के बैल की तरह काम किया,सबकी खुशियों का ख्याल रखा, जैसा सबने कहा वो वैसा ही तो हमेशा करती आई लेकिन फिर भी आज जरा सी बात पर इतना बड़ा अपमान, मैं ने तो बस सासू मां से इतना ही तो कहा कि कभी कभी आंगन में किसी लड़के की चिट्ठी पत्थर में लिपटी हुई पड़ी रहती है और सुरेखा (मेरी ननद) उसे उठा लेकर जाती है, इतना बताने पर सास ने कहा कि तू मेरी बेटी पर लांछन लगा रही है और एक की हजार लगाकर बेटे से कह दिया और उन्होंने मेरी बात सुने वगैर ही मुझे घर से निकाल दिया, मेरे बच्चे भी नहीं दिए।।

सुधा ये सब सोचती हुई चली जा रही थीं,वो अपने मायके पहुंची जो कि उसी शहर में था,मां बाप से सब बताया लेकिन मां बाप बोले__

बेटी ! पन्द्रह साल से तू उस घर की बहु है,मायके में सारे रिश्तेदारों में तेरी अच्छी छवि है,क्यो अपनी और हमारी छवि बिगाड़ने पर तुली है,जा अभी सबसे माफ़ी मांग लें,सब ठीक हो जाएगा, नहीं तो हम समाज में मुंह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे।।

लेकिन मैं भी तो भइया की तरह आपकी संतान हूं और मां मुझे भी तो तुमने नौ महीने अपने पेट में रखा होगा, मुझे भी जन्म देते समय तुम्हें उतनी ही तकलीफ हुई होगी जितनी की भइया को जन्म देते हुए हुई होगी, फिर ऐसा भेदभाव क्यों?

क्योंकि मैं एक बेटी हूं और फिर जब मेरी कोई गलती नहीं है तो क्यों अपनी गलती मानूं, मैं आप लोगों के पास सहारे के लिए आई थी कि कम से कम आप लोग तो मुझे समझेंगे लेकिन चलिए,मेरा ये भ्रम भी दूर हो गया,शायद हम बेटियों का कोई घर नहीं होता।।

अब सुधा आत्महत्या करने गंगा की ओर चल पड़ी,बस सुध बुध खो कर गंगा की ओर गुस्से से चली जा रही थी...बस चली जा रही थी..।।

गंगा के किनारे पहुंच कर,वो गंगा के जल में आगे की ओर बढ़ती जा रही थी फिर उसने डुबकी लगाई लेकिन गंगा मैया की गोद में पहुंच कर,उसे असीम ममता का एहसास हुआ, उसने सोचा चलो, कोई ना सही अब से गंगा ही मेरी मां है,अब मैं सबको बता दूंगी कि मैं कौन हूं।।

गंगा के बाहर आकर,घाट की सीढ़ियों पर बैठकर,काफी देर तक सोचती रही, फिर उठी और बाजार की ओर चल पड़ी,सुनार की दुकान पहुंची उसने अपने गले का मंगलसूत्र और कान की बालियां बेच दी,करीब सब चालिस हजार का हुआ, उसने अपने रहने के लिए एक कमरा ढूंढ़ा फिर कुछ समान जुटाया,एक दो दिन में,वो घाट के किनारे चाय और समोसे बेचने लगी, समोसे सबको इतने पसंद आए कि चुटिकयों में बिक गए,अब उसका आत्मविश्वास बढ़ा,उसने साथ में और भी कई तरह के पकौड़े भी बेचने शुरू कर दिए और वही घाट पर एक और उसी की तरह एक साथी मिल गई,जिसका नाम माया था,अब धीरे-धीरे उसने एक दुकान डाल ली और सारे शहर में उसके पकौड़े मशहूर हो गए।।

अब उसे शादी ब्याह में भी आर्डर मिलने लगें,उसने अपने हुनर का बखूबी इस्तेमाल किया,इसी बीच उसे जब भी मौका मिलता वो स्कूल में अपने बच्चों को भी मिल आती।।

 तभी उसे किसी ने कहा कि मास्टरसेफ की प्रतियोगिता का आयोजन हो रहा है और तुम्हें उसमें जरूर भाग लेना चाहिए जीतो ना जीतो लेकिन अपनी तरफ से पुरजोर कोशिश करना।।

और उसने प्रतियोगिता में भाग लिया और वो जीती भी,अब उसमें एक अलग ही ऊर्जा का संचार हो रहा था, आखिर आज उसे अपने सवाल का जवाब मिल गया था।।

वो अपने पति के घर अपने बच्चों को लाने पहुंची,पूरे आत्मविश्वास के साथ और उस समय उसका पति कुछ ना बोला और दोनों बच्चों को सुधा के साथ आसानी से जाने दिया।।

आज सुधा को एहसास हुआ कि आज़ादी क्या होती है ? सुधा की अन्तर्आत्मा बोली कि मैं एक नारी हूं, ठान लूं तो कुछ भी कर सकती हूं।।


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