Niru Singh

Inspirational

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Niru Singh

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आईना बोल पड़ा

आईना बोल पड़ा

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 नीचे का कमरा साफ करते करते नीलिमा का हाथ पुरानी काठ की अलमारी के ऊपर गया तो जैसे हाथों में कुछ चुभा,"अरे! यह तो खून निकल आया"।

जब उसे उतारा तो यह वही आईना था जिसमें उसकी यादें बसी थी।उसे खिड़की की रोशनी के पास जाकर देखा तो एक दूसरी नीलमा नजर आई, आईना उस नीलिमा को ढूँढ रहा था जिसका जान था वह आइना। खिलखिलाती गुलाबी गालों को झुर्रियों ने ढक लिया था, मखमली गुलाब की पंखुड़ियों से होठो पर वक्त का रंग चढ़ गया था, बड़ी-बड़ी आँखें सिकुड़सी गई थी, चमकते कपोल पर बिंदी तो थी पर वह चमक ना थी, कान में बड़े-बड़े कर्णफूल पहनने वाली का आज कान सूना था।काले घने घुटनों तक के बाल कमर के ऊपर आ पहुँचे थे, जिस पर कहीं-कहीं तजुर्बे का रंग चढ़ गया था, लचीली छरछरी बदन थोड़ा ठहर और जिम्मेदारियों की वजह से झुक गया था।

 आज आईना बोल पड़ा "तूने खुद को खो दिया नीलिमा,तू तो वह नहीं जिसे मैं निहारा करता था! तू तो कोई थकी-हारी निराशावादी बूढ़ी महिला लगती है"।

वह मात्र पैतिस साल की थी पर विचारों से संतावन की हो गई थी।आईने ने उसे झकझोर दिया "कौन है तू"?

हाथ का पोछा दूर झटक वह आईने के साथ वही खिड़की के पास अपने पुराने टूटे कुर्सी पर बैठ गई जहाँ वह उसी आईने में खुद को घंटों निहारा करती थी। माँ के अकस्मात मौत के कारण कब वह घर की बेटी से घर की माँ बन गई उसे पता ही न चला।सोलह साल की नीलिमा जिम्मेदारियों में फँस आज पैतिस के बाद खुद को आईने में देख रही है। इस तमाम सालो में उसने आईना तो कई बार देखें पर आज पहली बार आईना उसे देख़ रहा था।

 सभी अपने-अपने जीवन में मशरूफ है। नीलिमा कब तक त्याग करें? सभी अपने परिवार के साथ ख़ुश है,पर नीलिमा के पास परिवार के नाम पर भाई बहनों का सप्ताह में एक बार आता फोन है, भाई जिम्मेदारी के नाम पर भेजता कुछ पैसे जिसका भार उसके अहसान से कम था।एक मात्र नीलिमा का साथी उसका अकेलापन था।

 आज आईने नें नीलिमा को उसे मिलाया था! उसने अपने कपड़ों की तरफ देखा फ्रॉक और जींस पहनने वाली नीलिमा आज एक पतले सूती साड़ी में खड़ी थी।उसी काठ के अलमारी को खोला तो आज भी उसके कुछ कपड़े उसी तरह से तह किए हुए थें, जैसे माँ नें रखें थे।माँ इसी कमरे में सोती थी उनके जाने के बाद इस कमरे में आने की किसी की हिम्मत ना हुई। उन कपड़ों में से उसने एक जींस निकाला उसे कमर से लगाकर देखा "छोटी हो गई है "! फिर रख दिया।

माँ ने जो लाल गाउन बनवाया था उसके सोलहवे जन्मदिन के लिए उसे निकाला "इतना गाढ़ा रंग अब नहीं! नहीं!" उसे भी रख दिया और आकर उसी कुर्सी पर बैठ गई। मन में उहापोह लगा रहा।

"इस बंद कमरे में मुझे कौन देख रहा है एक बार पहन के देखती हूँ" माँ ने बड़े पसंद से बनवाया था।" मन ही मन बड़बड़ाई 

 घर में उसके और एक बिल्ली के अलावा सिर्फ निर्जीव वस्तुएँ ही थी जाने किससे शर्मा रही थी कि सारे खिड़की दरवाजे बंद कर आई और मटमैली रंग की साड़ी उतार उस लाल ड्रेस को पहना खुद को आईने में देखने से भी हिचक रही थी, साहस कर वही छोटा आईना उठाया मानो आईना खिलखिला पड़ा हो! उसे देख नीलिमा भी मुस्कुरा दी। धीरे से आईने ने कहा "खुले बालों में अच्छी लगती हो"।

शर्माते हुए धीरे-धीरे उसने बालों को भी खोला और बिंदी उतारी नीलिमा का चेहरा खिल उठा था झुर्रियां कम हो गई थी,गाल गुलाबी तो नहीं पर थोड़े तन गए थें । मुस्कान की वजह से होठों का रंग भी बदल गया था फिर जाकर उसने खुद को बड़े आईने में देखा। बाइस साल बाद भी नीलिमा का वजन ना घटा था ना बढ़ा था। सारे कपड़े उसी के नाप के थे,कुछ देर तक वह खुद को आईने में आगे पीछे निहारती रही।

 आईने से ही पूछ रही थी "क्या मुझे यह पहनना चाहिए?"

 "क्यों?नहीं!" मन के आईने से जवाब आया,।

नीलिमा नें सोचा " लोग क्या कहेंगे!" 

मन के आईने नें नीलिमा से पूछा "नीलिमा कब से परवाह करने लगी लोगों की! लोगों की वजह से अपनी खुशियों की तिलांजलि देना कहाँ की भलमनसाहत है"?

 उस रात बिस्तर पर लेटी तो थी, पर मन नाच रहा था उसी गाउन में। जिस बिस्तर पर उसने कई रातें काटी थीं आज उस बिस्तर में कांटे लगे हो ऐसे रात बिताई उसने।

 जैसे-तैसे सुबह हुई,आज वह बाजार जाने को तैयार हुई तो साड़ी नहीं पहना उसने अपनी एक पुरानी सलवार कमीज डाली संग एक छोटा सा झुमका पहना,सोने की छोटी सी चेन पहनही रखी थी ।

 खुद को आज थोड़ी छोटी महशुस कर रही थी। कम से कम दस बार दरवाजे तक जा लौटा आई "साड़ी पहन लेती हूँ बाजार से आकर पहन लुंगी" मन ने धकेल कर उसे बाहर किया। कुछ दूर तक उसने नजर न उठाई आँखें नीची कर चुपचाप चोरों की भाँती चली जा रही थी।

"अपने ही जीवन में अपनी ही खुशी के लिए औरों से इजाजत लेनी पड़े यह कैसी जिंदगी है!"

 बाजार की भीड़ में जब वह कामों में व्यस्त हुई तो यह भूल गई थी कि पहना क्या है चाल में तेजी,बात में तेजी थी तभी एक आवाज आई "आज अच्छी लग रही हो दीदी,तुम पर यह कपड़े फ़ब रहे हैं! "

 जिससे वह सब्जियाँ लेती थी उसकी बेटी ने कहा, यह सुन शर्मा गई वह जैसे यही तो सुनना चाहती थी!

वापस लौटते वक्त चाल में तेजी और गर्दन तनी हुई थी।आस पास वाले पहचान ही ना पाएँ कि कुछ कहते,उस एक शब्द ने उसमें साहस भर दिया था।

 आज दो साल हो गए नीलिमा ने ग्रेजुएशन किया था, एक कंपनी में नौकरी मिल गई है। अब जिंदगी को अपने हिसाब से जी रही हैं, दो सालों तक लोगों ने बहुत कानाफुसी की फिर उन्हें आदत पड़ गई,एक नई स्मार्ट जींस पहनकर ऑफिस जाने वाली नीलिमा की।नीलिमा खुश थी उसकी ज़िंदगी में अकेलेपन के लिए कोई जगह न थीं,अपनी जिंदगी के बाईस साल जो उसने गावँ दिये थे उन्हें वह जी रही थी।

 "अपने दायरे खुद तय करो लोगों के तय किए दायरे में सांस भी ना ले पाओगे "।


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