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Kumar Utkarsh

Drama

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Kumar Utkarsh

Drama

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी

1 min
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दुनिया बदलती है,

लोग बदलते हैं,

पर ज़िन्दगी,

चलती ही जाती है,

चलती ही जाती है।


हालात बदलते हैं,

माहौल बदलता है,

और कभी ज़िन्दगी,

रुक-सी जाती है।


अँधेरा बढ़ता ही चला जाता है,

रौशनी नज़र नहीं आती हैं,

मानो पल में ही ये ज़िन्दगी,

कही खो जाती है।


वक़्त के सामने घुटने टेक देते हैं,

जीतने की होड़ में ना जाने,

क्या-क्या खो देते हैं,

मानो ज़िन्दगी बेबस हो जाती है।


आशाएँ नहीं होती कुछ भी,

उम्मीदें बिखर जाती हैं,

मानो ये ज़िन्दगी,

टूट-सी जाती हैं।


जब कुछ समझ नहीं आता,

किसी से कुछ भी मेल नहीं खाता,

मानो ये ज़िन्दगी,

उजड़ सी जाती है।


फिर सोचती,

वक़्त से पहले मिलता नहीं कुछ,

इसी तरह चलता हैं दुनिया का उसूल,

ये सोच के ज़िन्दगी,

एक बार फिर संभल जाती है।


ठोकरे खा-खा कर जब,

मज़बूती आ जाती है,

ज़िंदगी एक बार फिर से,

सही राह पर निकल जाती है।


ज़िन्दगी, हाँ ये ज़िन्दगी,

जो देन हैं ऊपर वाले की,

और जी रही हैं ये शरीर,

इसे पहुचना हैं उस किनारे,

इस बीच मझधार के पार,

ज़िन्दगी, हाँ, ये ज़िन्दगी।


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