बेनाम
बेनाम
अभी जब तारीख देखी,
तो ये खयाल आया,
कितना वक़्त है बीत गया,
क्या कुछ है खोया और क्या पाया।
एक बार फिर मस्त मौला जीवन,
जीने का खयाल उमड़ा मेरे मन में,
जब सोचते-सोचते मुझे,
अपना बचपन याद आया।
क्या दिन थे वो भी जब एक,
टॉफी पे मुस्कान आ जाती थी,
और कोई बात ना सुने तो,
खिलखिलाती हँसी ही खो जाती थी।
कहाँ फँस गये इस महीने दर महीने,
मिलने वाले पैसों के चक्कर में,
उस वक़्त तो दो रुपये मिलने पे,
मानो नौकरी लग जाती थी।
ना कोई भेदभाव था ना जलन,
ना गुस्सा कभी किसी भी यार से
मिलते थे दिल खोलकर हर शाम,
और खेलते थे सभी प्यार से।
हर त्योहार हर छुट्टी लाती थी,
खुशियों की एक झोली,
और नहीं तो एक सन्डे का,
दिन था जब देखते थे संग रंगोली।
कभी सागर की लहरें थी,
तो कभी नदी का किनारा था
पहाड़ों पर ऊपर चढ़कर,
बादलों को छुने को मन बेगाना था।
पत्ते तो थे पर उसमें सचिन,
और अंडरटेकर के तस्वीर जमते थे,
जन्मदिन के दिन तोहफे,
खोलने को मन मचलते थे।
काश कभी हम एक बार फिर,
कर पाएँ उस तरह जीने की पहल,
जहा नहीं था अकेलापन या टेंशन,
बल्कि सबका सहारा था।
आओ दोस्तों, चलो बनाएँ,
एक बार फिर वो रेत का महल,
और जी ले वो नादान बचपन,
जो सच में कितना प्यारा था।