यथार्थ
यथार्थ
उलझनों से दूर भागना
असल में हार जाना हैं
जिंदगी का दूसरा नाम ही
उन पर मात करते-रहना हैं...
उलझें हुए को सुलझाना
वाकई में वाजिब,
सुलझें हुए पे ओज गवाना
फ़कत वक्त की बरबादी हैं...
ठ़ोकर खाते-खाते ही
ख़ुद का सफ़र बनते-जाता हैं
जिंदगी में हर मुसाफ़िर को
जो अकेले ही तय करना हैं...
हिसाब गुज़रे समय का
लगाते बैठना फ़िज़ूल
आनेवाले हर पल को
शिद्दत से अपना बनाना हैं...
मंज़िल का वास्ता दे-देकर
मुड़ते क़दमों को क्यों डराना हैं
जिंदगी को एक ना एक दिन
अपनी दोस्त मौत से मिलने जाना हैं...
लंबाई को नापकर कोई
गहराई से कैसे हो वाक़िफ
जन्म से मरण तक फ़ासला
सजाने को मक़सद बनाना हैं...