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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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ये वक्त

ये वक्त

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ये वक्त आज़कल बहुत बदल रहा है

अँगारे से भीगकर ये फूल बन रहा है

क्या सूझी इसे,कब किसकी मानी इसने,

ये वक्त तन्हा ही आजकल चल रहा है

इस वक्त का खेल बड़ा ही निराला है

किसी को भी बना लेता ये निवाला है

ये वक्त कभी थमता नही है

ये वक्त कभी रुकता नही है

ये वक्त अपनी ही धुन में आंखे मल रहा है

ख़ुदा ही जाने,इस वक्त के गाने

भरे सौर में,भरी हुई महफ़िल में

ये वक्त आजकल सुनसान चल रहा है

कभी खुशी देता है,कभी गम देता है

पर जो भी देता है,सोच-समझ देता है

ये वक्त समझदारों से बिना बोले,

आजकल दो कदम आगे निकल रहा है

जो भूत छोड़,भविष्य छोड़,

वर्तमान सम्भाल लेता है,उनके लिये तो

ये वक्त कीचड़ में कमल बन खिल रहा है

क्या आज़कल, क्या पहले का कल

हमेशा ये वक्त इसके साथ चलने वालों से

खुश हो उनके साथ जिंदा ही चल रहा है



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