ये कैसा प्रेम
ये कैसा प्रेम
कोई वादा नहीं था,
कोई कसमें भी नहीं खाई थी,
बस कुछ दुख सुख के पल
सांझा किये थे।
कुछ जागती रातें संग हमने बिताई थी।
ठीक वैसे जैसे चाँद जागता है
सारी रात
हमारे संग हमारे रत जगों का साथी बनकर।
न मिलन ही कभी हुई थी,
नहीं थी कोई मिलन की प्रतीक्षा।
नहीं पाया ही कभी था,
नहीं खोने का डर मन में था कभी आया।
ठीक वैसे जैसे मंद समीर तप्त गर्मी में
हल्के झोंके
संग आकर राहत पहुँचा जाता है।
अजीब सी कशमकश मन ने है पाली,
जैसे छूट रहा बहुत कुछ
जैसे मुट्ठी से रेत सरकता हो जैसे।
अजीब सी है उलझन
नहीं मिलती है थोड़ी भी मन को राहत।
जैसे उमस भरी गर्मी के बाद
हल्की सी आती है जो बारिश
बढ़ाती है बेचैनी।
वैसे ही हो रही है हालत।
नाम क्या दूँ इसे
क्या बताऊँ कैसी है ये उलझन
दो राहें पर है ये मन,
प्रभु बस इतनी सी मन्नत
करती हूँ तेरी इबादत।
सुकून दे दे मन को
नहीं बचे कोई बेचैनी।
पाकीज़गी हो इश्क की
रूह से जुड़कर
बस इतनी इबादत।