ये कैसा पागलपन
ये कैसा पागलपन
न राह देखी राही ने, न साथी का अकेलापन,
पैसा ही सिर्फ दिखाई देता, ये कैसा पागलपन ?
राह में अच्छाई नहीं तो क्या, फल तो ज़रूर हैं,
भले ही, राही अब इन्सान क्रूर है।
धन की चकाचौंध में ये कैसा अंधापन,
कि दिखाई नहीं देता कोई सगा जन।
तन जगमगाना चाहिए, भले ही अंधेरे से भरा हो मन,
झूठ को सच बनाने का ये कैसा पागलपन ?
धन के पीछे अंधे बने दोड़े जा रहे हैं,
अपना मूँह इन्सानियत से मोड़े जा रहे हैं।
कर्मस्थली समझ पैसा कमाने बस खाई में छलांग मार रहे हैं,
अश्लीलता के सामने सच्ची योग्यता को मार रहे हैं।
कागज़ के चंद टुकड़े कमाने को,
इन्सान राज़ी है कुछ भी कर जाने को।
बेच रहा इन्सान पैसों के लिए खुशी से अपना ही तन,
खुद, इन्सान से बेजान चीज़ बन जाने का, ये कैसा पागलपन ?