यादें
यादें
दर्पण में निहारने लगे बिंब
सामने नज़र आया प्रतिबिंब
यादों के झरोखें को दे गया दस्तक।
याद आने लगी जवानी, वो चेहरा नूरानी
कालिज की मस्ती, अपनी हस्ती
वो बचपन की भूलभूलैया, तालाब की ताल-तलैया
स्कूल का घण्टा, घूमता अपना काँच का बन्टा
गुल्ली-डण्डे का खेल, बच्चों की छुक-छुक करती रेल
खेतों की पगडडियाँ, मस्ती में बजती अपनी साइकिल की घण्टियाँ
माँ की गठरी, उसमें बँधी लडडू मठरी
उनको चुरा कर खाना, अपनी मस्ती में रुठ जाना
दादा जी की पुचकार, पिता का प्यार,
संयुक्त परिवार, एक दूसरे के लिए उमड़ता प्यार
दादी-नानी की कहानियाँँ, अपनी नदानियाँ
गन्ने की मिठास, बस अपनी ठाठ ही ठाठ
बड़ी याद आई सौंधी मिट्टी की महक, बैलों की रहट
फसलों का लहराना, चिड़ियों का चहचहाना
मेहनतकश किसान,
माथे पर चमकते पसीने की बूदों के निशान
ग्रामीण भोले-भाले, नहीं कोई गड़बड़ झाले
सूर्य के ढलने की शाम, गोधूली में धूल कणों के निशान
पंछियों के घर लौटने के नज़ारे,
जैसे देवता ज़मीं पर एतर आए हो सारे
यह स्नेहिल स्वप्निल यादें
मुझे गुदगुदाती है
मेरे मानस पटल पर छाती है
वो तो अब सिर्फ यादें ही रह गई है
जो यदा-कदा आईने के झरोखें से दस्तक दें जाती है
जिस में मैं फिर से बन जाता हूँ बच्चा,
उतना ही अल्हड़ और कच्चा
जो लौटा ले जाती है मुझे मेरे गाम में,
ढलते सुर्य की शाम में
जिनको मैं शहर की भीड़ भरी गलियों में
और मशीनी युग की चकाचैंध में कब से भुला चुका था।