यादें बचपन की..
यादें बचपन की..
अक्सर..
मैं परहेज करती हूं
भीड़ भरे रास्तों से
और आंख बचाकर मुड़ जाती हूं
कच्ची और संकरी गलियों में,
जहां महसूस करती हूं..
कंचों की खनखनाहट
और बचपन की कच्ची-पक्की बातें..
वो..दूर तक भागते जाना
नंगे पांव
सिर्फ एक पेंसिल के लिए..
लौटना स्कूल से
झुलाते हुए बस्तों को..
बीच में रुक जाना कहीं
सुनकर मदारी के डमरूओं की आवाज..
पर अब..
एकांत में चलना
और सुनना अपनी ही पदचाप,
यही सब क्यों अच्छा लगता है इतना !!
