याद
याद
चंद रोज़ की जिंदगी बाक़ी अभी रातें हैं
एक अमावस से बिछड़ीं हुई मुलाक़ातें हैं
शज़र पर दुर कहीं जब गाती हैं कोयल
यहाँ तेरे रूह-ए-अल्फ़ाज़ मुझे सतातें हैं
आफताबी सुबहें करती हैं बेबस मुझको
बस महताब के सहारे काटीं रातें हैं
तेरी आहट तक को अब भूल रहा हूँ मैं
दिल की धड़कनें क्यूँ उसे दोहरातें हैं
कोई अरसा बिता तुम्हें महसूस करके
ये संदली हवायें माज़ी क्यूँ दिखातें हैं
आरज़ू भी अब लफ़्ज़ तौल कर निकलें
जाने किस हर्फ़ से वोह नाम बतातें हैं
बारिश को क्यूँ कोसूँ मुझे भीगो दे अक्सर
मेरी याद भर तेरे आँसू निकल आतें हैं
बस कम ही लगाया करो आँखों में सुरमा
सूरज से बदरा की रोज़ मुलाक़ातें हैं
जब निकलती हो जोबन पहन कर तुम
फ़ूल कहाँ यें बहारें चमन खिलातें हैं
कोई नहीं शायद बे-पर्दा पहचानता तुम्हें
फिर अलग की ग़ज़लों से क्यूँ बुलातें हैं।