व्यथा
व्यथा
हे परम गुरु! परम देवता! कैसे अपनी व्यथा सुनाऊँ मैं।
तुम तो हो विघ्नहर्ता ,कैसे अपने को समझाऊँ मैं ।।
परीक्षा की इस कठिन घड़ी में, सफलता की उम्मीद नहीं है।
मूल्यांकन करता तुम ही हो मेरे, पापों का मेरा अंत नहीं है।।
अंधकार में डूबा रहता, गुरु- रूप प्रकाश तुम ही हो।
मन को अब कुछ अच्छा नहीं लगता, मनोदशा के वैद्य तुम्ही हो।।
मैं ना माँगू धन और दौलत, इसने तो तुमसे दूर किया है।
तरस रहा हूँ चरण धूल पाने को, जिसने कितनों का उद्धार किया है।।
कहना तो तुमसे बहुत कुछ चाहता, लेकिन मेरी मज़ाल नहीं है।
शरणागत "नीरज" है तुम्हारे, मन में कुछ और ख्याल नहीं है।।
