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Praveen Gola

Abstract

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Praveen Gola

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वक़्त

वक़्त

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मैं वक़्त को संभालती

संभालती चली गई,

ये फिर फिसल के बह गया

मैं इसकी धुन में बही 


मैं सोचती रही कि कल मिलेगा

मुझको फिर यहीं,

वो कल भी आके दौड़ गया,

मैं उसको पकड़ती रह गई 


बहुत से काम बाकी हैं

करने को अभी यहीं,

ये वक़्त कभी रुका नहीं

मैं इसको दोष देती रही 


मैं संग - संग इसके

अब दौड़ने थी लगी,

अपनी कम होती उम्र के संग 

इसके काँधो पर थी चढ़ी


ये भागता गया मुझे बिठा

खुद पे चारों ओर,

फिर जोर से गिरा के हँसा ,

मैं ताकती इसको रह गई 


मैं वक़्त से अब हारने

हारने थी लगी,

ये आगे चला जा रहा था,

मैं पीछे थी इसके पीछे खड़ी।


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