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वो

वो

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वक़्त बीतता गया, वो हमारी होती गयी,

मेरी शायरी की नज़्म-ब-नज़्म वो होती गयी।

पैमानें पर पैमाना मोहब्बत का भरा जाने लगा,

ज़िंदगी मैं खुशनुमा सा दौर छाने लगा।


जैसे तैश मैं सागर से अलग हो साहिल,

वैसे रूठी ज़िंदगी से इतर उसे कर लिया था हासिल।

इस मुकाम पे मोहब्बत के उसे क्या इनाम दूं,

मिलकर साथ उसके जो बनाई है कायनात अपनी,

वो इशारा भी कर दे,

उसके जर्रे जर्रे को जन्नत-ऐ-जहाँ कर दूं।


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