वो लम्हा
वो लम्हा
था धूप और घना बादल
छाया था मेरे अम्बर पर,
थे बरस रहे दोनों,
कुछ ये रुककर या वो रुककर।
तुम दोनों मुझको ही तो
सताने आये थे,
देख मेरी ढाल को
मन ही मन घबराए थे।
हूँ शुक्रगुजार मैं जनक का अपने,
जीने का हुनर मुझे
उन्होंने सिखलाया था।
मैं परछाई हूँ
अपने जनक का,
जिन्होंने चलना मुझे
सिखलाया था।
आपसे ही प्यार करता हूँ,
आपसे डरता भी हूँ,
पर है जनक आप, मैं हरदम
आपके नाम को ऊँचा करने की
कोशिश करता हूँ।