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VIVEK ROUSHAN

Abstract

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VIVEK ROUSHAN

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वो एक़ पेड़

वो एक़ पेड़

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हरे-भरे पेड़ो के बीच 

मैं वो पेड़ हो जाना चाहता हूँ 

जिसमें कोई पत्ता नहीं है 

जिसमें कोई फूल नहीं है 


जिसमें कोई फल नहीं आता 

वो उदासीनता से भरा पड़ा है 

फिर भी वो तटस्थ खड़ा है 

हरे-भरे पेड़ों से नज़र मिलाता हुआ 


भीड़ में अपने अस्तित्व को बचाता हुआ 

वो थके-हारे पंक्षियों को 

सुस्ताने का जगह देता है 

अपना सब कुछ हार कर भी 

पक्षियों को सहारा देता है 


वो राहगीरों के मन में 

बेचैनी का भाव प्रकट करता है 

उन्हें सोचने पर मजबूर करता है 

की कोई सुख कर भी 

इतना हरा कैसे हो सकता है ?


पक्षी हरे-भरे 

फल-फूल से लदे 

पेड़ों को छोड़कर 

इस सूखे,जर्जर, हारे हुए 

पेड़ पर हीं क्यों बसेरा कर रहे हैं ?


किसी विचारशील राहगीर के 

मन में इस भाव का आ जाना 

इन सवालों का उत्पन्न हो जाना हीं 

उस पेड़ की जीत हैं 


क्यूंकि उस पेड़ का उद्देश्य हीं यही है 

वो हर आने-जाने वाले

राहगीर को बताना चाहता है 

की हार जाना मर जाना नहीं होता 

हम ज़िन्दगी से हार कर भी 


किसी के बाग़ में 

किसी के दिल में 

किसी के घर में 

रह सकते हैं 

हम हार कर भी हर किसी को 

प्यार दे सकते हैं 


हम हार कर भी 

उन तमाम जितने वालों के समक्ष 

नज़र से नज़र मिला कर 

खड़े रह सकते हैं 

और फिर एक बार 

जीतने का दम भर सकते हैं।


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