वक्त
वक्त
वक्त की कीमत ना हम समझ पा रहे हैं,
वक्त की रेत को उम्र की मुट्ठी से गिरा रहे हैं।
बाट जोहते हैं माँ-बाप घर की देहरी पे बेताब,
शहर की चकाचौंध में हम क्यों भटक जा रहे हैं।
चाहते तो हैं की लौट चलें हम वापस,
रास्ता घर का हम अब ना ढूँढ़ पा रहे हैं।
निकले क्यों चंद पैसों की तलब में घर से,
सोच के बस यही अब हम पछता रहे हैं।
जो बिता दिए 10 साल तन्हा अकेले,
घड़ी के वो कांटे अब हिसाब चाह रहे हैं।
वक्त है ये कोई खिलौना नहीं है नितीश,
खेल के इससे अब हम बहुत पछता रहे हैं।
वक्त रहते ही संभल जाओ दोस्तो,
अब भी तुमको हम समझा रहे हैं।
कद्र कर लो जो भी साथ है तुम्हारे,
लम्हा दर लम्हा वो दूर जा रहे हैं।
दिल की बातें कह दो जिनसे जो है कहना,
लम्हों के मोती यूँ ही बिखरे चले जा रहे हैं।
वक्त की कीमत ना हम समझ पा रहे हैं,
वक्त की रेत को उम्र की मुठ्ठी से गिरा रहे हैं।।
