विस्तृत विभीषिका
विस्तृत विभीषिका
कितना भयानक लगे विस्तृत विभीषिका,
ऐसा लगे हैं जैसे हैं केवल एक मरीचिका।
त्रस्त मन में आते हैं कई उत्तेजनापूर्ण विचार,
एकांत अवस्था में इस समस्या का नहीं है कोई उपचार।
निर्जन अँधेरे अंचल में लग रहा है आतंक,
मानस में ऐसा लगा हुआ जैसे शरीर में पंक।
धुंधले अंधियारे रात में छोटी सी आहट से भी लगे भय,
सभी खीजते हैं इसी समय में
रामभक्त महावीर हनुमानजी का अभय।
इस दुविधा लटकाव की समाप्ति का हो रहा है प्रतीक्षा,
असीम अंधकार के शीघ्र शेष होने का होता है अपेक्षा।
भय लगता सोचकर अपने पूर्वानुमित क्षति के क्षण,
अपने आत्मविश्वास का करना होगा सही विश्लेषण।
कितने रूप में है यह विस्तृत विभीषिका,
प्रेतात्मा के श्राव्यस्वर से भयप्रद लगे उपत्यका।