उठो ! बढ़ो ! लड़ो स्वयं से
उठो ! बढ़ो ! लड़ो स्वयं से
जीवन से क्यों मौत भली लगती है आज जमाने में
कहीं प्रेम पे संकट है या हारे साथ निभाने में
संघर्षो के हवन कुंड में प्रज्वलित है दाहक न्यारी
तपके,निखरो,और निखारो तभी बने जग छवि प्यारी
सोचो हार गये खुद से तो सीख मिलेगी क्या पीढ़ी को
अस्तित्व कटघरे में होगा औ दोष मिलेगा इस सीढ़ी को
कभी नहीं पतवार सजेंगी धूमिल होंगी रीत सभी
मातम होगा त्यौहारों पर रोयेंगी नित जीत सभी
गदर्भ तुरंग पर भारी होंगे शेरों से शृगाल अड़ेंगे
दृश्य एक ऐसा होगा जो नहीं स्वयं से आज लड़ेंगे।
