उंगलियां
उंगलियां
उनके तय किये नियमों को
दरकिनार कर
जब मैं निकली
अपनी उडा़न पर
तो वे उठाने लगे उंगलियां
एक के बाद एक
अनेक उंगलियां
वो चाहते तो थे मुझे
दिखाना आसमां
मगर बस उतना
जितना दिखाई दे
घर के आंगन से
मैं अनभिज्ञ नहीं थी
मुझे पता था
असीमित है ये आसमां
मुझे निकलना होगा
उनके गढे़ पिंजरे से बाहर
गर भरनी है स्वंछद उडा़न
वे फेंकने लगे
इल्जामों के बाण
बडा़ आसान होता है ना
किसी पर उंगली उठाना
खासकर स्त्री पर
मुश्किल होता है साथ निभाना
खासकर उस स्त्री का
जो सपने देखती है
तो वे करते रहे आसान काम
आत्मा घायल हुई
मगर हौसला मजबूत था
मैं निकालती रही
इल्जामों के बाण
बिना कराहे
और बढ़ती रही
कदम दर कदम
और बढ़ रही हूं आज भी
मुझे यकीं हैं
पा लूंगी एक दिन
अपने सपनों का आसमां
उनका क्या !
वे तो उठाते रहेंगे उंगलियां
हर रोज नई उंगलियां......
