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Rashminder Dilawari

Abstract

4.3  

Rashminder Dilawari

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उलझन ए मन

उलझन ए मन

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कई दिनों से मन में चल रही एक उलझन है

कैसे किस्से कहेँ? पूछता अब ये मेरा मन है

क्यों लगती है कभी आकाश सी ये धरती?

क्यों लगता है कभी धरती सा ये आकाश?

है आपस में क्या इन सब का संगम है ?

कई दिनों से मन में  चल रही एक  उलझन है ।


क्यों  कभी करता है दिल कि मैं शोर मचाऊँ?

क्यों  कभी करता है दिल कि मैं शांत हो जाऊँ?

द्व्न्द है कैसा जिससे परेशान मेरा ये  मन है? 

कई दिनों से मन में  चल रही एक  उलझन है ।


क्या झूठ और फरेब बस रह गया है एक रोग?

असली पे नकली चेहरे क्यों लगा रहे हैं लोग?

मन का पता नहीं पर साफ़ सुथरा ये तन है

कई दिनों से मन में  चल रही एक  उलझन है ।


किसे आज तक मैं समझ रहा था अपना?

क्या नश्वर शरीर ये मेरा भी तो है एक सपना ?

सत्य की तलाश में क्यों बीत रहा ये जीवन है? 

कई दिनों से मन में  चल रही एक  उलझन है ।


है क्या मोल यहाँ दिल के जज़्बातों का?

है क्या मोल यहाँ आपस में रिश्ते नातों का ?

पैसा ही सबका यहाँ क्या बन चूका ईमान धर्म  है?

कई दिनों से मन में  चल रही एक  उलझन है । 


क्या सच में है वो भगवान जिसने हमें बनाया है?

कहाँ रहता है वो भगवान जो हर जीव में समाया है?

क्यों बढ़ रही है बुराई और भूमि बन रही रण है ?

कई दिनों से मन में एक चल रही उलझन है।

कैसे किस्से कहेँ? पूछता अब ये मेरा मन है ।


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