तुम्हारी आंखें
तुम्हारी आंखें


हाथ पकड़ जब तुम कह रहे थे
रुक जाने को तुम्हारे पास
थोड़ी सी नम हो रहीं थी
तुम्हारी आंखें
हर बार जब नज़रों से
ओझल होते हो तुम
सड़क के उस मोड़ पर
शायद बेहिसाब बरसती हैं
तुम्हारी आंखें
कमरे की दीवारें
ताकती हैं दिन रात मुझे
मैं भी घूरता रहता इन्हें
कोरी निगाहों से
ढूंढता हूँ इनमें मैं
शायद तुम्हारी आंखें