तुम्हारा कैनवस, मेरी तस्वीर
तुम्हारा कैनवस, मेरी तस्वीर
कल रात कुछ तो लिख रही थी मैं
अपनी उंगलियों से
उस कैनवस पर
जिस पर मेरी तस्वीर बनाई थी तुमन
ये हक़ीक़त थी या मेरे माज़ी की शरारतें
कौन फ़ैसला चाहता था?
मैं और तुम
ख़ुश रंगो मे डूबे
तुम्हारे हाथ
गवाह रहेंगें हमारे
रब्त के
बस इतना ही काफी है
है ना...
उस एक लम्हे में नई सी
हो गयी थी मैं
तुम्हारे बदन की सौंधी सी खुशबू
लिपट कर मेरे वजूद से
महफूज़ और भी महफूज़
कर रही थी मुझको।
तुम्हारी आवाज़ की सिलवटे लिए हवाएं
मुझे छूकर गुज़री
पूछ रही थी
ये फीका सा तुम्हारी आँखों का रंग
अच्छा नहीं लगता मुझको
इज़ाज़त हो तो
थोड़ा सा गहरा कर दूं क्या ?
मैं और मेरी ख़ामोशी
खो गए थे तुम्हारे आग़ोश मे
बिना कुछ बोले
ये तस्वीर आज भी अधूरी है।
अब आँख खुली है
सारा कैनवस जला हुआ है
ख़ाक ही ख़ाक है कमरे में
बाकी है तो बस
मेरे माथे पर तुम्हारे होठों का लम्स
और तुम्हारा नाम।
जो कल रात लिख रही थी मैं
अपनी उंगलियों से
उस कैनवस पर
जिस पर मेरी तस्वीर बनाई थी तुमने।