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Sudhi Siddharth

Abstract

5.0  

Sudhi Siddharth

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आज कैसी गुज़री

आज कैसी गुज़री

1 min
350


शाम जब घर लौटती हूँ

एहसास रहता है

कोई है जो रास्ता देखता होगा


ये एक ही रिश्ता

जो मुसलसल

चल रहा है सदियों से

ताज्जुब है, मैं भूल जाती हूं

पर ये रोज़ पूछती है

हाल मेरा

बताओ "आज कैसी गुज़री"


कोफ़्त होती है बहुत

जब टोकती है

बात बात पर

जैसे घर का बुजुर्ग

दरख़्त हो कोई


पर जब खुलते है हम 

रात के दूसरे पहर

कुछ ये सुनती है

कुछ सुनाती है


इंतिशार होता है तो

बहस चलती है

सहर तक

बासी तल्खियां

जलाकर सर्द रातों में

हाथ भी तापे है हमने


जिसपर साथ रोए थे कभी

आज हसतें है उस वक़्त पर


सोचती हूं कैसा रिश्ता है

मेरा "मेरी डायरी" से

मैं इसमें हूं या ये मुझसे है।


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