आज कैसी गुज़री
आज कैसी गुज़री
शाम जब घर लौटती हूँ
एहसास रहता है
कोई है जो रास्ता देखता होगा
ये एक ही रिश्ता
जो मुसलसल
चल रहा है सदियों से
ताज्जुब है, मैं भूल जाती हूं
पर ये रोज़ पूछती है
हाल मेरा
बताओ "आज कैसी गुज़री"
कोफ़्त होती है बहुत
जब टोकती है
बात बात पर
जैसे घर का बुजुर्ग
दरख़्त हो कोई
पर जब खुलते है हम
रात के दूसरे पहर
कुछ ये सुनती है
कुछ सुनाती है
इंतिशार होता है तो
बहस चलती है
सहर तक
बासी तल्खियां
जलाकर सर्द रातों में
हाथ भी तापे है हमने
जिसपर साथ रोए थे कभी
आज हसतें है उस वक़्त पर
सोचती हूं कैसा रिश्ता है
मेरा "मेरी डायरी" से
मैं इसमें हूं या ये मुझसे है।