प्रकृति वाणी
प्रकृति वाणी
प्रकृति ही शाश्वत्य है, स्वरुप परमानंद है
आत्म से दर्शन करो, यही सत्य चित आनंद है।
मुख पर हंसी, कर में जीवन, हृदय में मातृत्व है
आंचल में रखती लालिमा, बस प्रेम ही सर्वत्र है।
नीला अम्बर सर पे साजे, कोहरा जिसका ओढ़नी
सांझ बनती जिसकी काया, तारें बनते बींदनी।
ऐसी मनोहर छांव इसकी, सर्वदा बैठी रहूं
संकल्प भरके अंजुली में, एक नई कविता कहूं।
बोली प्रकृति क्या लिखोगी, एक करुण वंदन सुनो
चीर फेंको वक्ष मेरा, फिर नई कविता कहो।
कौन से शब्दों को चुनकर, लिख सकोगी वेदना
कौन से शब्दों में बोलो, ढूंढ़ोगी सम्भावना।
सुन सको तो सुनके देखो, मेरे अश्रु की पुकार
हो सके तो रोक दो, अंगों का मेरे कारोबार।
प्रश्न मुझसे पूछते हो, आँचल क्यों मैला हो गया
कौन सा दर्पण दिखाओ,वो भी गूंगा हो गया।
कैसी ये दृष्टि तुम्हारी, धूल जिसपर है पड़ी
हाशिये पर आ खड़ी हूं, हाय कैसी ये घड़ी।
अब स्तब्ध हूं, निर्वस्त्र हूं, सुख कहीं मिलता नहीं
मातृ शक्ति पूजते हो, दुःख मेरा दिखता नहीं।
चिंतन करो मंथन करो, ये सृष्टि है जननी तेरी
सर्वस्व अग्नि में जलेगा, जैसी है करनी तेरी।
मैं तो फ़िर भी मां हूं, सीने से लगाऊंगी तुम्हे
जब भी आओगे शरण, अमृत पिलाऊंगी तुम्हे।
मैंने बोला मां, रुदन मेरा स्वीकार कर
शीश मेरा झुक रहा, बस एक आभार कर।
कष्ट तेरा सुन सकूं, मुझमे वो साहस नहीं
प्रेम करने आई थी, तुझको मैं आहत नहीं।
किस लिपि में, क्या लिखूँ, लेखनी भी हारी हैं
सत्य है करुणा तेरी, पर पीड़ा उस पर भारी है।
तूने मुझको सब दिया, ऋण चुका न पाऊँगी
तेरी माटी से बनी हूं, माटी में मिल जाऊँगी।
तेरी माटी से बनी हूं, माटी में मिल जाऊँगी।