तुम मेरी समझ में नहीं आते हो
तुम मेरी समझ में नहीं आते हो
तुम मेरी समझ में नहीं आते हो ,
एक पहेली जैसे हर रोज नजर आते हो ,
संग संग चली जाती हूँ हर दिन साथ तुम्हारे ,
पैरो के निशान फिर भी पानी में ही समाते हो ,
साथ हो कर भी शीशे में नहीं दिखता चेहरा ,
वजूद से ही बस मुस्कराहट ले आते हो ,
आज फिर मेरी समझ में तुम नहीं आते हो |
पढ़ लिया मैंने हरा पन्ना तुम्हारी किताब का,
कुछ नये पन्ने रोज बढ़ाते हो ,
उतर नहीं मिलेगा इन पहेलियों का ,
हर रोज ये अहसास दिलाते हो ,
आज फिर मेरी समझ में तुम नहीं आते हो |
हां , सबुत दिए हे मैंने, कोशिश भी की हे मैंने,
उन हर एक पन्नों की पहेलियों को सुलझाने में ,
पर मेरी हर कोशिश को प्यार से,
मनोरंजन बनाकर जब तुम हंस जाते हो ,
आज फिर मेरी समझ में तुम नहीं आते हो |

