तुम हो कुंदन से
तुम हो कुंदन से
तुम पूछते रहे कि क्यों मैं हंसती रही,
क्यों बिना हारे मुट्ठी भर प्यार सब में बांटती गई।
भले ही तुम्हें मेरा लाड़ दुलार बस एक दिखावा, एक मुखौटा लगे,
पर मैं तो आशावादी हूँ, क्या करूँ, प्रकाश को ढूंढ ही लेती हूँ अंधकार के आगे।
मेरे लिये तो रोशनी तब भी थी जब मैं तुम्हारे अनुराग में सरोवर थी,
और तब भी जब बियोग के पथ पर अकेली मीलों तक चली थी।
मानती हूं तुम जीवन की झंझा में देर तक झुलसे,
पर क्यों कोयले के कालिख को देखो जबकि तुम हो कुंदन से।
तुम मानो या न मानो, अभी भी तुममें से आशा की आभा झलकती है,
मन के दर्पण में एक बार झांक कर तो देखो, एक नया प्रभात तुम्हारे आलिंगन को आतुर है।