टूटी ज़ंजीरें
टूटी ज़ंजीरें
सदियों पुरानी सोच से निज़ात पा गई हूँ,
पिंजरे में परवाज़ को फड़फड़ा रही थी मैं,
आज परवाज़ पा गई हूँ,
खुले आसमानों में पँख लगा, पखेरू बन,
उड़ना चाहती थी, आज मुकाम पा गई हूँ,
कौन सा मुकाम है, जो मुझसे अनछुआ है,
कहीं डॉक्टर, कहीं इंजीनियर,
कहीं पायलट, कहीं वैज्ञानिक,
कहीं गुरु, कहीं नेता, कहीं अभिनेता,
अंतरिक्ष तक में सेंध लगा दी मैंने,
अरे ! अंतरिक्ष की तो छोड़ो,
सीमा पर भी पताका फहरा दी मैंने,
कोमल हूँ, कमज़ोर नहीं हूँ, मैं भारत की नारी हूँ,
लक्ष्मीबाई, पदमावती के पदचिन्हों पर चलने की,
मैंने ठानी है, बन लक्ष्मी, दुश्मनों पे पिल जाऊँगी,
पदमावती बन, अपनी आबरू बचाऊंगी,
क्यों सोचते हो मैं छुई - मुई हूँ,
हाथ लगने पर सिमट जाऊँगी,
गुलाब हूँ, पन काँटे भी रखती हूँ,
चहूँ ओर भेड़ियों से अपने आप को बचाऊँगी,
स्वतंत्रता और स्वच्छंदता का फर्क पहचानती हूँ,
मर्यादा में रहना है कैसे ये भी जानती हूँ,
ज़रुरत नहीं लक्ष्मण रेखा की,
मेरी हद है कहाँ तक ये जानती हूँ,
रेंग - रेंग कर उड़ना सीखा है मैंने,
खुले आसमान में उड़ने दो,
शिकारी बन, पिंजरे में मेरा पीछा न करो,
ज़ंजीरों में अपने आप को फ़िर से नहीं जकड़वाऊँगी,
सदियों बाद गुलामी की जंजीरों से निज़ात पाई है,
"शकुन" उन्हें फिर नहीं पहन पाऊँगी !