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Suman singh

Abstract

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Suman singh

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समझौता

समझौता

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बेटी वो तुमसे दुगनी उम्र का है,

तो क्या हुआ।

अब तक न जाने कितने लोग

तुम्हें ठुकरा चुके हैं।


सोचो और सोच कर बताओ,

अपनी ज़िद पर तुम भी न उतर आओ।

सोचना शुरू किया उसने तो,

बस सोचती ही रह गई।


देखते दिखाते,

बीस से अठाईस की हो गई।

यूँ ही लोग आते गए और उसके

पक्के रंग को देख कर उसे ठुकराते गए।


चिड़चिड़ी सी हो गई वो,

इन रंगों की दुनिया में खो गई वो।

क्यो इंसान के दिल को न देखकर,

चेहरे के रंग पर जाता है इंसान।


क्यो कर नहीं पाता वह

सही गलत की पहचान।

लड़के चाहे कैसे भी हो,

पर उन्हें अप्सरा चाहिए।


तो किसी की बेटी क्यों डमी ही,

खरीद लाइये।

सजा देना घर के एक कोने में,

सजा-सँवारकर।


गुस्से में सोचती रही वह,

अपना मन सा मारकर।

अच्छा पढ़ने लिखने का भी

कोई फायदा नहीं हुआ।


डिग्री के ऊपर पक्का रंग,

बाजी मार ले गया।

मेरे पीछे मेरी बहनें भी तो,

घर में कंवारी बैठी है।


लोग पापा को कहते हैं,

अभी तक तेरे घर पर,

सारी बैठी है।


सोचा, समझा उसने भी ,

कर लिया फैसला।

तोड़ दूंगी जो भी आँखों मे,

सपना था पला।


पापा का बोझ कम कर दिल,

पर बोझ लिए चली जाउंगी।

दुगुनी उम्र का ही सही, उसके

साथ ही घर बसाउंगी।


ये ही तो होता चला आया है,

पीढ़ियों से अभी तक,

रंग तो भगवान की देन है,

पर दुनिया को भी कहाँ चैन है।


पर शायद उसे भी,

अपने पिताजी पर दया आ गई।

उसके दिल मे था दर्द,

पर घर में खुशियां सी छा गई।


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