काश ! बन पाऊं मैं अक्ष-जल
काश ! बन पाऊं मैं अक्ष-जल
मैं बन जाना चाहता हूँ धरा
जो अच्छा-बुरा सब झेलती रहे यूं ही
अनथक-अविरल-अविराम
बिना किसी प्रतिवाद के
मैं हो जाना चाहता हूँ आग
जो जलती रहे हर मन में
तमाम निराशाओं के बावजूद
अपने अंदाज में
करती रहे भंग नाउम्मीदी के अंधेरों को
काश मैं हो जाऊं आकाश
समेट लूँ तमाम दुनियावी रंगों के बादल
अपने आगोश में
और अनाचार-अनैतिकता के
असह्य बोझ को उठा लूं
शुभेच्छाओं के सुदर्शन से
बन पाऊं मैं जल काश !
जो बुझा सके प्यासों की प्यास,
लहरा सके
किसान की पथराती आंखों में,
रह पाऊँ नयनों में कायम
और समझ सकूँ
शर्म-शाइस्तगी के बदलते मायने
बायरा बन बह सकूँ
काश मैं
जन -मन का गान बन
और अर्था सकूँ
हवा का अर्थ जीवन के आंगन में
काश ! बन पाऊं मैं अक्ष-जल।