टुकड़ों में बटा आदमी
टुकड़ों में बटा आदमी
टुकड़ा- टुकड़ा बीतता है दिन
टुकड़े में गुजरती हैं रातें
टुकड़ों में कहता है वो अपनी बातें
(होठों को कुछ घुमाकर )
शब्दों को चुभ लाकर
टुकड़ों में रह जाती हैं भावनाएं
कितनी ही बार
टुकड़े- टुकड़े होता है वह
सारे रिश्ते, सारे कर्तव्यों
को देता है टुकड़े- टुकड़े पल
टुकड़े- टुकड़े में थमाता है
उनका प्राप्य
सबकी अपेक्षाएं तो
हो जाती हैं पूरी
पर इन टुकड़ों से
अपने लिए कुछ भी
जोड़ नहीं पाता
ना आत्मानुभूति, ना आत्मपरीक्षण,
ना आत्मज्ञान, ना आत्मबोध, ना आत्मसंतोष,
ना आत्मीयता
कुछ भी तो नहीं
शायद टुकड़े में बंटे
आदमी की नियति यही है।