साक्षी
साक्षी
आज भी बिजली चमकी है
है आज भी पानी बरसा
हो गया अतीत साकार
मेरे सामने
ऐसी ही बारिश में तो
खुली छत पर
खुल के हम दोनों भींग रहे थे
बारिश की रसधार में
भीग- भीग कर
एक दूसरे को परख रहे थे
व्याकुल धरा कर रही थी
आलिंगन इस धार का
हम भी चख रहे थे
मजा हमारे प्यार का
बारिश के डर से
लोग हो गए थे गोल
ऐसे में तुमने चुम लिए मेरे कपोल
पहले मैं सिहर उठी थी
फिर प्रेम नशे ने
मुझे बनाया मतवाला
झुक कर शर्माकर
मैंने प्रत्युत्तर दे डाला
झट से बिजली चमक उठी थी
मेघ भी था तेज स्वर में बोला
जैसे हमारे प्रणय की, मिलन की
वह साक्षी बन रहा अकेला
आज भी बिजली- बादलों में
ढूंढना चाहू उसे
जो कभी बना था साक्षी
शकुन्ता सी भटकती
पाना चाहूं दुष्यंत को।