तरस खाना उस मुल्क पर
तरस खाना उस मुल्क पर
जहाँ अक़ीदाह-ए-मदाह है पर मज़हब नहीं ।
जहाँ कपड़ों की भरमार पर बुनाई नहीं।
जहाँ पकवान बेशुमार पर खेती नहीं।
जहाँ ज़ालिम बना सरपरस्त है।
जहाँ मज़लूमों की हालत पस्त है।
जहाँ नज़राने देते खातिर जंग-ए-अज़ीम।
जहाँ आग बरसाता है सेहेर-ए-नसीम।
जहाँ ख्वाबों के कबरगाह होते है।
जहाँ सपने देखने वाले बस रोते हैं।
जहाँ आवाज़ बस उठते है जनाजों पर।
जहाँ डर का है परत लगा मिजाजों पर।
जहाँ सच की गर्दन पर तलवार लटकती है।
जहाँ हर ज़ुबान बोलते बोलते अटकती है।
जहाँ हुक्मरान मानिंद सियार होते है।
जहाँ शैतान के सब दोस्त यार होते है।
जहाँ ढोल ताशों से नए आका चुने जाते।
जहाँ पत्थरों से पुराने आका है भगाते।
जहाँ ज़हीन खयाल हो जाते ज़मीं दोज़।
जहाँ होती है ग़िबत की मेहफिल हर रोज़।
जहाँ बँटवारा ही हर मज़हब का है सरमाया।
जहाँ इंसान तो है, पर जीना नहीं आया।
जहाँ लुटती हर पल है असमत ज़नानी की।
जहाँ नहीं भरोसा हसीं ज़िंदगानी की।
जहाँ मदाहपरस्ती ही बस अपना राग अलापे।
जहाँ इंसानो को इंसान रुपयों से नापे।
जहाँ शोर को मौसक़ी का देते उनवान है।
जहाँ बस मदाह ही रिहायशी पहचान है।
जहाँ इल्म का गला घुट रहा है पल पल कोई।
जहाँ सच णल रहा राह संभल संभल कोई।
हाँ उस मुल्क पर तुम बेखौफ होकर तरस खाना।
हाँ हो सके तो न बनना उस मुल्क का रिहायशी।
क्योंकि जो फितरत है वो नहीं बदलती आसानी से।
वतन परस्ती की वहाँ कोई कीमत होती नहीं।
हो सके तो उससे दूर चले जाना।
उस मुल्क पर तुम तरस खाना।
I have always been intrigued by the writings of Khalil Gibran.
This piece of mine is inspired by his piece "Pity the Nation".
Yes I have added some words of mine own
and tried to configure the lines in a way that they fit out
in a Nazm format,
however have tried to keep the soul of his poetry intact.