मैं, परिंदा
मैं, परिंदा
आईना जब भी देखूँ मैं, परिंदा याद आता है,
है नन्ही जान फिर भी, आसमां चाहता है।
भले ही है मुसीबत, सैकड़ों हैं दर्द दिल में,
भुला कर इनको, सबसे दूर जाना चाहता है !
हवा भी रुख बदलती, कुछ थपेड़े मार देती,
गिराती और बहाती, दूर भी फटकार देती।
पर अपने पंख ये ऐसे फैलाना चाहता है,
चीर कर उसको दिखाना चाहता है !
ये मेरी बात मानो या ना मानो,
ये दुनिया बंद मुट्ठी में दीवानों ।
हो जिनके हौसलों में बुलंदी,
उन्हें कैसी, कहां, कोई पाबंदी।
वो हर गर्दिश पहुंचना जानता है
तभी पंछी सा बन वो भी उड़ना चाहता है !