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Anand Ranjan

Abstract

4.0  

Anand Ranjan

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तोहे क्या मैं लिखूँ

तोहे क्या मैं लिखूँ

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395


कभी सोचत हूं मैं राम तोहे कभी सोचत हूं तोहे श्याम लिखूं

ज्यों जग की पीड़ा हरत हो तुम ईश्वर से तोहे महान लिखूं

इस अंधियारे के दीपक तुम आवाम की तोहे में ढाल लिखूं

हो योद्धा सबके नायक तुम हर तीर का तोहे कमान लिखूं


पूरब देखूं पश्चिम देखूं दक्षिण देखूं या उत्तर

तैनात खड़े तुम विश्वपटल के हर डगर पर तत्पर

तज के अपने सुख़ चैन को तुम बस सेवत हो हमें चारों पहर

हो विपदाओं से भिड़ते तुम पर आगे बढ़ते बेख़ौफ़ निडर


मन चाहत है तोरे काम लिखूं तोरे दान लिखूं गुणगान लिखूं

तोहे आम लिखूं इंसान लिखूं या ईश्वर का वरदान लिखूं

पर लेखन को हैं शब्द नहीं कैसे मैं तोरे बख़ान लिखूं

ज्यों जग की पीड़ा हरत हो तुम ईश्वर से तोहे महान लिखूं

सो नतमस्तक होकर के मैं अब सबका तोहे सलाम लिखूं।


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