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Anand Ranjan

Others

2.5  

Anand Ranjan

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सुबह

सुबह

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बिखरी है राख राहों पर सुबह सुबह

मानो कोई ख़्वाब जला हो अभी अभी

हिलती है शाख पेड़ों पर सुबह सुबह

मानो कोई दूर उड़ा हो अभी अभी


कुछ पत्ते गीले दीखते हैं 

मानो अश्क समेटें खुद में हों

मद्धम मद्धम सी हवा भी है 

बेताब हुई कुछ कहने को


क्या लौट के फिर वो आएंगे

इक रात सिरहाने पर मेरे

या फिर से गुल हो जाएंगे 

जब नींद खुलेगी सुबह सुबह



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