तोहे क्या मैं लिखूं
तोहे क्या मैं लिखूं
कभी सोचत हूं मैं राम तोहे कभी सोचत हूं तोहे श्याम लिखूं
ज्यों जग की पीड़ा हरत हो तुम ईश्वर से तोहे महान लिखूं
इस अंधियारे के दीपक तुम आवाम की तोहे में ढाल लिखूं
हो योद्धा सबके नायक तुम हर तीर का तोहे कमान लिखूं
पूरब देखूं पश्चिम देखूं दक्षिण देखूं या उत्तर
तैनात खड़े तुम विश्वपटल के हर डगर पर तत्पर
तज के अपने सुख़ चैन को तुम बस सेवत हो हमें चारों पहर
हो विपदाओं से भिड़ते तुम पर आगे बढ़ते बेख़ौफ़ निडर
मन चाहत है तोरे काम लिखूं तोरे दान लिखूं गुणगान लिखूं
तोहे आम लिखूं इंसान लिखूं या ईश्वर का वरदान लिखूं
पर लेखन को हैं शब्द नहीं कैसे मैं तोरे बख़ान लिखूं
ज्यों जग की पीड़ा हरत हो तुम ईश्वर से तोहे महान लिखूं
सो नतमस्तक होकर के मैं अब सबका तोहे सलाम लिखूं।