तन्हाई
तन्हाई


वो मुझे तन्हा
छोड़कर कभी किसी
बज़्म से जा न सकी मेरी गज़लें ही
सुनती रही कभी अपनी नज़्म सुना न सकी
तां उम्र वो मेरी
फ़िक्र करती रही अपना
हाल बता न सकी मुझे मेरे मुकाम
तक ले गयी खुद का आशियां बना न सकी
अपनी आरज़ू
को इस कदर शिद्दत से
निभाया उस ने कि उसी आरज़ू
को अपनी आखिरी ज़ुस्तज़ू बताया उस ने
बड़े असूलों से
वो अपनी पाक मोहब्बत
को निभाती रही की इबादत मेरी
दिल से और मुझे अपना खुदा बताती रही
गुज़रा वो अँधेरी
गलियों से पर मुझे रोशनी
दिखाती रही हवाओं ने बुझा दिए
थे जो दिये वो फिर से उन को जलाती रही
बड़ी तहज़ीब से
उसने मेरे कदमों के निशां
को संजोया है म
ेरी आँख का हर
एक मोती अपनी सूखी आँखों में पिरोया है
मुझ तक कभी
किसी भी गम की आँधी को
आने न दिया यूँ ही बे आबरू हो
कर कभी अपने कूचे से हमें जाने न दिया
भूल कर खुद को
उसने मुझे मेरे हर एक मुकाम
तक पहुंचाया है राह के इस सफ़र
में उस ने खुद को मुसाफिर ही बताया है
बन के अजनबी
वो राह पर साथ मेरे चलती
रही थी तो मेरा ही वक़्त पर लम्हा
बन के पल पल संग मेरे ही बदलती रही
न काब़िल होते
हुए भी उसने इतना काब़िल
बना दिया न आता था जिसे खुद
को पढ़ना तक उसे लिखना सिखा गयी
सुना था हम ने
कि इश्क निभाने का एक
अलग जज़्बा होता है हम तो बस
सुनते ही रहे और वो निभा के दिखा गयी..