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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

थोड़ी सी हल्दी

थोड़ी सी हल्दी

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लोग थोड़ी हल्दी से पीले होने लगे हैं

चंद रुपये-पैसों से आपा खोने लगे हैंं

वो नाले ही थे, पानी बाहर लाने लगे हैं


अपनी घमंड की परछाई बताने लगे हैं

गहराई को छोड़कर पोखर होने लगे हैं

लोग थोड़ी हल्दी से पीले होने लगे हैं

कितना समझाया, उन्हें समझ न आया,


स्वर्गमय दुनिया के वो फूल नोचने लगे हैं

पैसे के मद में रिश्तों को तोड़ने लगे हैं

छवि को आईने से बड़ा बोलने लगे हैं

बिना दरवाजे के वो कुंडी खोलने लगे हैं


शक्ति-मद में खुद को खुदा बोलने लगे हैं

पर शायद वो भूले हैं,

हिरणकश्यप वध, श्री हरि ने नृसिंह रूप धर दिया था

दंडलोग खुद विनाश दरवाजे खोलने लगे हैं


लोग थोड़ी हल्दी से पीले होने लगे हैं

पर जीत तो साखी सच्चाई की होती हैं

डूबता नहीं वो, दरिया की गहराई होती हैं

थोड़ी हल्दी से पीले न होनेवालों लोगों की,

जग में साखी सदा जय-जयकार होती हैं


बड़ी सोच रखने के कारण ही जग में,

हम तो फ़लक के उड़ते बाज होने लगे हैं

अच्छी सोच के जुगनू होने के कारण,

हम तो सूरज के नजदीक होने लगे हैं।


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