सुनीति
सुनीति
नीति नियम के बंधन सारे,
बेशक हमें रिझाते पर।
अंतर्मन की गंगा से तो,
भव बंधन कट जाते हैं ।।
क्षेत्र सीमित रीति नीति का,
लिखतम में आ जाती है।
सुनीति का क्षेत्र असीमित,
कब बंधने ये पाती है ।।
कानूनों से ऊपर है ये,
न्याय साम्य अपनाती है।
कमजोरों मजलूमों को ये,
ग़म से बाहर लाती है ।।
इसे जरूरी जनहित में हम,
कदम कदम पर पाते हैं ।
अंतर्मन की गंगा से तो,
भव बंधन कट जाते हैं ।।
अच्छी लगती है सुरुचि पर,
मुंह सुनीति से ना मोड़ें।
तजकर सोने के सिक्के को,
पीतल पाने ना दौड़ो।। <
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राह पतन की सबको भाती,
भला चहाते गर छोड़ें ।
दुनिया नाशवान है मानें,
ईश्वर से रिश्ता जोड़ें ।।
हानि लाभ में लिप्त सतत मन,
इसड्डू भाते हैं ।
अंतर्मन की गंगा से तो,
भव बंधन कट जाते हैं ।।
कर्तव्यों का आदर करते,
जो सुनीति पर रहते हैं ।
जो मन का अनुशासन माने,
नहीं हवा में बहते हैं ।।
मजबूरी की बात नहीं ये,
मन का सौदा है प्यारे ।
"अनंत" सतपथ पर चलने से,
मसले होते हल सारे ।।
निर्वसनों के तन सुनीति के,
वस्त्र पहन इठलाते हैं ।
अंतर्मन की गंगा से तो,
भव बंधन कट जाते हैं ।।