स्त्री
स्त्री
यह कैसा प्रेम है जिसमे तुम मुक्त और मैं बंधी हुई हूं
तुम सतत बहते रहे पर अभी भी मैं ठहरी हुई हूं
यह कैसा प्रेम है जिसमे तुम स्वछंद और मैं
लोगों के बातों से डरी हुई हूं
यह कैसा प्रेम है तुम चाहो तो निकाल दो अपने जीवन से
और मैं उसमे ही बने रहने और संवारने में लगी हुई हूं
यह कैसा प्रेम है जिसमे तुम्हारा गुरूर भी स्वाभिमान
और मेरा वजूद भी एक अभिमान हो
आखिर यह कैसा प्रेम है ?