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Anuja Manu

Others

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Anuja Manu

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अविचल

अविचल

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देख देखकर उठती लहरें,

मन मेरा होता है पागल!

ना जाने क्यों लगता मुझ को,

सागर पर लहराता आँचल!


कितनी आकृति बन जाती हैं,

आकर पास बिखर जाती हैं!

मुझको छूते ही क्यों जाने,

खुद ही पुनः सिमट जाती हैं!


मैं चाहूँ पर पकड़ न पाऊं,

दिखता है सा उड़ता बादल!


अपलक लहरों में देखा है,

कितनी यादें बिखर रही हैं!

जैसे भीगे तन पर तेरे,

वर्षा बूंदें निखर रही हैं!


और लटों का लिए सहारा,

उतर रहा हो सरिता से जल!


मैं लाया हूँ खाली प्याला,

चाहूँ सारा सागर भर लूं!

विष अमृत जो भी हो इसमें,

अपने नाम सभी कुछ कर लूँ!


खुशी मात्र ही कहां प्रेम है,

होते हैं कुछ दुःख के भी पल!


इस सागर की थाह नहीं है,

मेरी उथली चाह नहीं है!

लहर मिटाती पद चिन्हों को,

अलग मेरी पर राह नहीं है!


हर पल राह बदल ने वाला,

भी पाता है गहरा दल दल!


दिन गुजरें या बीते वर्षों,

प्यास मेरी कब बुझ पाएगी!

प्यास मेरी यह रहे निरंतर,

खारा सागर पी जाएगी!


बहे नहीं आंसू पलकों से 

मधुर मिलन का हो शीतल जल!


सदा यहां पर कौन रहा है,

सागर सूख चुके हैं कितने!

लेकिन इन सांसों के चलते,

कभी न देना यादें मिटने!


मेरे मन में चित्र तुम्हारा,

रहता है पर अमिट व अविचल!

ना जाने क्यों लगता मुझको 

सागर पर लहराता आँचल!



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