सत्गुरू
सत्गुरू
भव-सागर रुपी इस जीवन में, जीवन की नैया जब ड़गमगाती है।
अंधकार रूपी लहरों से ,काया भी जर्जर हो जाती है।।
मजबूर हुआ नाविक भी, बीच मझधार में चिल्लाता है।
अपने बचाव के खातिर, वह अपने प्राण नाथ को पुकारता है।।
माया के निज जाल में फँस, वह भी खूब नाच नचाती है।
पीड़ा भरे इस अंतर्मन में, रह- रह उसकी याद आती है।।
दया के सागर वह "परमपिता", उसकी दुर्दशा पर दया करते हैं।
भटके को राहत दिखलाने कारज, सब पर कृपा बरसाते हैं।।
नर शरीर रूप में अवतरित हो, कल्याण भटकों का करते हैं।
मंगल-मूर्ति मय शरीर को, "नीरज" सत्गुरू नाम लेते हैं।।