सपना - आत्म सम्मान में मर जाऊं
सपना - आत्म सम्मान में मर जाऊं
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लोग कहते थे
तुझे बराबर का हक़ दिया
साथ खड़े होने का हक़ दिया
अपनी बात बोलने का मौका दिया
लेकिन आज भी
मैं पूछती हूँ,
मुझे सम्मान कहाँँ दिया ?
हक़ सारे दिए,
आत्म सम्मान कहाँँ मिला ?
आज भी हर गली,
हर रास्ते में डर है
हर मोड़ पर आते ही
सन्नाटे में किसी के न आने की प्रार्थना
डर का साया है।
कहाँँ है मेरा सम्मान ?
घर से निकलते ही बोले
मत जा डर है
कुछ बोलू़ंं तो बोला जाए,
शांत रह !
आप लड़का न बने !
मर्जी से जीने नहीं मिला
डर है
इज्जत का ख्याल रख
बाहर डर है
कहाँँ है मेरा सम्मान ?
बेड़ियों में ऐसी उलझी सोच
कि कपड़े से चरित्र और
चरित्र से कपड़े देखे
कहाँँ है हमारा हक़ ?
यही सम्मान है ?
मै मर गयी
लेकिन सपना
कभी पूरा न हुआ
मेरे आत्म सम्मान का सपना...!