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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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संक्रमित कालखंड में

संक्रमित कालखंड में

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इस संक्रमित काल खंड में

कितना श्रेयस्कर है

अपने सम्बंधों पर

पुनर्विचार

जरूरी मानकर महसूस करने लगता हूँ


धर्म अपनी तरफ खींच रहा है

देश अपनी तरफ खींच रहा है

लोकतन्त्र अपनी तरफ खींच रहा है

देश का संविधान अपनी तरफ।

यकीनन धर्म का सन्दर्भ उहापोह भरा है


देश अपने से दूर जा रहा है

लोकतन्त्र अपनी मजबूती में अपना सब खो चूका है

और चारो तरफ शोर है

कानून का राज होना चाहिये

ढेर सारे नाम सक्रिय है


अपने पद और प्रतिष्ठा के साथ साथ

उम्मीद उड़ रही हवा में

और मनुष्य की पहचान

छोटी छोटी डुबी हुयी भीड़ में

कशमकश में है


अब सम्बंधों पर पुनर्विचार की

जरूरत एक अदद मनुष्य होने में अटकी है

फिर भी

फिर भी इतना तो है

हम भी आदमी तुम भी आदमी


और ये विश्वास कि

आदमी आदमी के काम आता है

तो भीड़ से निकलो न।

अपने सम्बंधों पर आवश्यक

पुनर्विचार के लिये।


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