समुंदर, धरा और आकाश
समुंदर, धरा और आकाश


बाँह पसारे समुंदर की चाहत यही
ले धरा को वो अपने आगोश में।
धरती की चाहत तो कुछ और है
सोचे हरदम, मिलूं कैसे आकाश से?
पायल लहरों की भेजी तुम्हारे लिये
बाँध बूँदों के घुँघरू तुमने लिये।
सीप के मोती हैं सब तुम्हारे लिये
हार शबनम के पहनूँ सदा के लिये।
बाँह पसारे समुंदर की चाहत यही
ले धरा को वो अपने आगोश में।
धरती की चाहत तो कुछ और है
सोचे हरदम, मिलूँ कैसे आकाश से?
मेरे अंतस में कितनी रंगीनियाँ
तुम पर अर्पण करूँ सारी जलपरियाँ।
झूला लहरों पर तुमको झुलाऊंगा मैं
आओ तो जरा मेरे आगोश में।
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बाँह पसारे समुंदर की चाहत यही
ले धरा को वो अपने आगोश में।
धरती की चाहत तो कुछ और है
सोचे हरदम, मिलूं कैसे आकाश से?
उधर आसमान कर रहा है नमन
प्यासे अधरों का हो रहा आचमन।
मेह गिरता है जब-जब आकाश से
प्यास बुझती है मेरी, भीग जाता है मन।
अपने भीतर समाये हो तुम खारापन
बुझा न सकोगे तुम मेरी तपन।
पवन के झोंकों से संगीत सुनती हूँ मैं
आ ना पाऊंगी, तुम्हारे आगोश में।
बाँह पसारे समुंदर की चाहत यही
ले धरा को वो अपने आगोश में।
धरती की चाहत तो कुछ और है
सोचे हरदम, मिलूं कैसे आकाश से?